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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका 1 नात्वत्तुं तेरद मिथ्यादृष्टिगळु यथायोग्य तिय्यंगायुष्यंगळं कट्टि मृतरागि बंदु एकाशविंशतिविष. तिथ्यंचलब्ध्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टिजीवंगळागि नरकगति देवगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानं पोरगागि त्रयोविंशत्यादिस्वस्वयोग्य पंचस्थानंगळं कट्टुवरु। २३ । ए अ २५ । एप । मिति च । अ । सं । म । अप २६ । ए प । आ । उ२९ । बि । ति । च । पं । म । पति । ३० । बि ति च । असं पति । उ ॥ तेजोवायुकायिकंगळ तिथ्यंग्गतियुतमागिये कट्टुवरु । मत्तमी एकान्नविशतिविधमप्प तिय्यंचलब्ध्यपर्य्याप्त मिथ्यादृष्टि जोवंगळं मत्तमेकान्नविंशति विधपर्याप्त तियंचमिथ्यादृष्टिगळु लब्ध्यपर्याप्तमनुष्यरूं पर्याप्तकर्मभूमि मनुष्यरुगळं मिथ्यादृष्टिगळु तिय्यंगा युष्यमं स्वयोग्यंगळं कट्टि भृतरागि बंदी एकान्नविंशतिविधमिध्यादृष्टि निव्र्वृत्यपर्याप्ततिथ्यंचरप्परु । अल्लि विशेष मुंटदावुर्द वोर्ड तेजोवायुकायंगळोळ पुटुव जीवंगळ अशुभत्रयलेश्या मध्यमांर्गादिदं पुटुव । मत्तं भवनत्रयादि सौधर्मकल्पद्वय पय्र्यंत मादमिथ्यादृष्टिदेव कळो केलंबरु १० लियंगायुष्य मने केंद्रिय संबंधियं कट्टि तेजोलेश्या मध्यमांशदिदं मृतरागि बंदु पृथ्व्यन्बादर प्रतिष्ठितप्रत्येक वनस्पतिनिर्वृत्यपर्य्याप्तरोळ मिथ्यादृष्टिगळागि पुटुवरु | तिय्यंग्मनुष्य रुगळा त्रिस्थानकंगोल पुटुवर्ड कृष्णादि चतुर्म्मध्यम लेश्यांशंगळिदं पुट्टुवरु । मत्तं भवनत्रयं मोवल्गोंड सहस्त्रारकल्पपर्यंतमाद मिथ्यादृष्टिदेववकं मत्तं प्रथमनरकं मोवल्गोंड सप्तमनरक पय्र्यंतमाद नारकमिथ्यादृष्टिगळं तिर्य्यगायुष्यमं स्वस्वयोग्यमं कट्टि मृतरागि बंदी कर्मभूमिसंज्ञिगन्भंजनि- १५ त्यपर्याप्त स्वस्व लेगळिदं मिथ्यादृष्टितिथ्यंचराणि पुटुवरु । यितेकान्नविंशतिविधनिर्वृत्यपर्याप्ततियंचरुगळु मिथ्यादृष्टिगळु सासादनरुमसंयतसम्यग्दृष्टिगळर्म वितु त्रिविधमप्परल्लि पर्याप्त पर्याप्तकर्मभूमि मनुष्येभ्यश्च मिथ्यादृष्टिभ्य एवागत्याशुभलेश्या त्रयेणोत्पद्यंते ते च विनाष्टाविंशतिकं त्रयोविशतिकादीनि पंचबनंति । तेजोवायुकायिकास्तु तिर्यग्गतियुतान्येव । ते चत्वारिंशद्विष मिथ्यादृष्टयः, अशुभलेश्याश्रयेण मृतास्तदेकान्नविंशतिविधपर्याप्ततिर्यग्मिथ्यादृष्टिषूत्पद्यते । तत्र तेजोवायुषु श्रशुभलेश्या मध्यमांशैरेव, २० भवनत्रय सौधर्मद्वय मिध्यादृष्टयः तेजोमध्यमांशेन तिर्यग्मनुष्या अशुभत्रयमध्यमांशेन च मृताः केचिद्वादरपुव्यप्रतिष्ठित प्रत्येकेषूत्पद्यते । भवनत्रयादिसहस्रारांतदेव सर्वनारक मिथ्यादृष्टयः बद्धतिर्यगायुषः स्वस्वलेश्याभिर्मृताः दृष्टियोंसे आकर जो तीन अशुभ लेश्या सहित तिर्यंच जीव उत्पन्न होते हैं वे अठाईसके बिना तेईस आदि पांच स्थानोंका बन्ध करते हैं। तेजकाय, वायुकायके जीव तो तियंचगतिके साथ ही उन पाँच स्थानोंको बाँधते हैं । उन्नीस प्रकारके लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंच, उन्नीस २५ प्रकार के पर्याप्त तिर्यंच और दो प्रकारके मनुष्य ये सब चालीस प्रकारके मिध्यादृष्टि तीन अशुभ लेश्याओंसे मरकर पूर्वोक्त उन्नीस प्रकारके पर्याप्त तियंच मिथ्यादृष्टियों में उत्पन्न होते हैं । इतना विशेष है कि तेजकाय, वायुकाय में तो अशुभ लेश्याओंके मध्यम अंशसे ही उत्पन्न होते हैं । भवनत्रिक और सौधर्मयुगलके मिथ्यादृष्टि देव तेजोलेश्याके मध्यम अंशसे तथा तिथंच और मनुष्य तीन अशुभलेश्याओंके मध्यम अंशसे मरकर कोई बादर पृथ्वी, ३० अप्रतिष्ठित प्रत्येकों में उत्पन्न होते हैं । भवनत्रिकसे लेकर सहस्रार पर्यन्त देव और सब नारकी मिध्यादृष्टि जिन्होंने तिचायुका बन्ध किया है वे सब अपनी-अपनी लेश्यासे मरकर कर्मभूमिया गर्भज संज्ञी क - १०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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