SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८५४ गो० कर्मकाण्डे मिथ्यात्वमं पत्तुविट्टु नियर्मादिदं सम्यग्दृष्टिगळागि तीरथं युतस्थानमनोंदने कट्टुवरु । ३० । म ती । तिग्गतियोऴ ॥ " णरतिरियाणं ओघो यिगिविगळे तिष्णि चउ असण्णिस्स । सपिण अपुण्णगमिच्छे सासणसम्मे वि असुहतियं ॥" तिरियंचरोळु षड्लेश्येगळवादोडमेकेंद्रिय भेदंगळोळं विकलत्रयंगळोळेला लब्ध्यपर्याप्त निवृत्यपर्याप्त पर्याप्तरोळ मशुभलेश्यात्रय५ मक्कुं । संयपर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळोळं नरकगत्यादिगबिंदु पुट्टिद सासादनरोळ मशुभलेश्यात्रयमेयक्कुं । अपर्थ्याप्तासंयतरोळं पर्याप्तासंयतरोळं पर्याप्तसासादनरोळं षड्लेश्येगळप्पु । असंज्ञिपंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तनिवृत्यपर्य्याप्तजीवंगळोळमशुभलेश्यात्रितयमेयक्कुं । पर्याप्तासंज्ञिमिथ्यादृष्टियोळ कृष्णादि चतुर्लेश्येगळपुवु । भोगा पुण्णग सम्मे काउस्स जहण्णयं हवे णियमा । सम्मे वा मिच्छे वा पज्जत्ते तिणि सुहलेस्सा ॥ एंदितु भोगभूमिनिष्व त्यपर्याप्तासंयत सम्यादृष्टिगळोळ. कपोत लेश्या जघन्यमेयक्कुं । नियमदिदं । मत्तमा भोगभूमिजमिथ्यादृष्टिगळोळ मेणु- सम्यग्दृष्टिगळोळ शरीर पर्याप्त परिपूर्णमागुत्तं विरलेला जीवंगळं तेजः पद्मशुक्लंगळे व शुभलेश्यात्रयमेयक्कु । मिल्लि एकान्नविशतिविधतिध्यंचलब्ध्यपर्य्याप्तरोपुटुव जीवंगळवावुर्वि दोडे पृथ्व्यप्तेजोवायुनित्य चतुर्गति१५ निगोदबादर सूक्ष्मजीवंगळु प्रतिष्ठितप्रत्येक अप्रतिष्ठितप्रत्येक द्वोंद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियपंचेंद्रिया संज्ञि संज्ञि लब्ध्यपर्याप्त पर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळं मनुष्यलब्ध्यपर्थ्याप्तपर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळु मितु १० नियमेन मिथ्यात्वं त्यक्त्वा सम्यग्दृष्टयो भूत्वा तस्त्रिशत्कमेव । तिर्यग्गतो पर्याप्तादित्रिविध सर्वेक द्वित्रिचतुरिद्रियेषु लब्ध्यपर्याप्त निर्वृत्त्य पर्याप्त संज्ञिनि मिथ्यादृष्टिनरकाद्यागत सासादनापर्याप्त संज्ञिनि च लेश्या अशुभा एव तिस्रः । पर्याप्त मिथ्यादृष्टयसंज्ञिनि कृष्णाद्याश्चतस्रः । पर्याप्त सासादन मिश्र पर्याप्तापर्याप्तासंयत संज्ञिनि षट् भोगभूमी २० निर्वृत्यपर्याप्ता संयते कापोतजघन्यं । मिथ्यादृष्टी सम्यग्दृष्टौ वा तत्पर्याप्ते शुभा एव तिस्रः । तत्रत्यानां शरीरपपूर्णाय तत्त्रये एवागमनात् । एषामुक्ततिर्यग्जीवानां मध्ये ये बादर सूक्ष्मपृथिव्यप्तेजोवायुनित्यचतुर्गतिनिगोदप्रतिष्ठिता प्रतिष्ठित प्रत्येक द्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञि पंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तास्ते च तेभ्यो वा तदेकान्नविंशतिविधपर्याप्तेभ्यो वा २५ ३० तिर्यंचगति में पर्याप्त आदि तीन प्रकारके सब एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रियोंमें तथा लब्ध्यपर्याप्त निवृत्यपर्याप्त असंज्ञीमें, नरकसे आये मिध्यादृष्टियोंमें और सासादन अपर्याप्त संज्ञी में तीन अशुभलेश्या ही होती है । पर्याप्त मिध्यादृष्टि असंज्ञीमें कृष्ण आदि चार लेश्या होती हैं। पर्याप्त सासादन और मिश्र तथा पर्याप्त अपर्याप्त असंयत संज्ञीमें छह लेश्या होती हैं । भोगभूमि में निर्वृत्यपर्याप्त असंयत में कापोतका जघन्य होता है । और पर्याप्त अवस्था में मिध्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टीके तीन शुभलेश्या होती हैं। क्योंकि भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीव शरीर पर्याप्ति पूर्ण होनेपर तीन शुभलेश्याओं में ही आते हैं । I इन ऊपर कहे तिथंच जीवों में से बादर, सूक्ष्म, पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, नित्यनिगोद, चतुर्गति निगोद, प्रतिष्ठित - अप्रतिष्ठित, प्रत्येक, दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, संज्ञी असंज्ञ पंचेन्द्रिय उन्नीस प्रकारके तियंच लब्ध्यपर्याप्तक और इन उन्नीस प्रकारके लब्ध्यपर्याप्तकों से अथवा तिथंच पर्याप्तकोंसे और पर्याप्त अथवा अपर्याप्त कर्मभूमियोंसे, इन सब मिथ्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy