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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८५३ - अपर्याप्तसप्तमपृथ्विय नारकर पर्याप्तनारकरु मिथ्यादृष्टिगळ तिर्यग्गतियुत नवविशतिप्रकृतिस्थानमुमं त्रिशत्प्रकृतिस्थानमुमं कटुवर । २९ । ति । ३० । ति उ॥ सर्वपृथ्विगळ सासादनरु तिय्यंग्मनुष्यगतियुतद्विस्थानंगळं कटुवरु। २९ । ति। म ३० । ति उ॥ मिश्ररुगळेल्लं मनुष्यगतियुतस्थानमनोंदने कटुवरु । २९ । म ॥ सर्वपृथ्विगळ पर्याप्ता ५ संयतनारकरुगळु मनुष्यगतियुतस्थामनोंदने कटुवरु । असं। २९ । म ॥ घम्म य निव्व॒त्य पर्याप्तासंयतरु क्षायिकसम्यग्दृष्टिग वेदकसम्यग्दृष्टिगळ कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिगळ नव. विंशतिस्थानमं मनुष्यगतियुतमनों दने कटुवरु । २९ । म । सतीत्थंरुगळु मनुष्यगतितीर्थयुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमनों दने कटुवक ३० । म ति ॥ शरीरपर्याप्तियोळमी प्रकारदिदमे कटुवरु । घना २९ । म ३० म ती। वंशे मेधेगळोळु मिथ्यादृष्टिगळागिईऽपर्याप्तसतीर्थनारकरुगळ १० च तिय॑मनुष्यगतिनवविंशतिकत्रिशके द्वे बध्नति । सप्तम्यां ते द्वे तिर्यग्गतियुते एव। तत्सासादनाः ते तिर्यग्मनुष्यगतियुते । मिश्रा असंयताश्च मनुष्यगतिनवविंशतिकमेव । घर्मायां नित्यपर्याप्ताः पर्याप्ताश्च क्षायिक वेदककृतकृत्यवेदकास्तदेव, सतीर्थाः मनुष्यगतितीर्थयतत्रिंशत्कमेव । वंशामेघयोः सतीर्थाः पर्याप्तत्वे ही मरकर उत्पन्न होते हैं। उन नरकोंमें उत्पन्न हुए वे नारकी शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने या पूर्ण न होनेपर तियेच १५ या मनुष्यगति सहित उनतीस और तीस दो ही स्थान बांधते हैं। किन्तु सातव नरकमें ये दोनों स्थान तियंचगति सहित ही बँधते हैं। वहाँ सासादन गुणस्थानवाले भी तिथंच या मनुष्यगति सहित दो स्थानोंको बाँधते हैं। मिश्र और असंयत गुणस्थानवाले मनुष्यगति सहित उनतीसको ही बांधते हैं। धर्मामें नित्यपर्याप्त या पर्याप्त क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टी तथा कृतकृत्य वेदक मनुष्यगति सहित उनतीसका स्थान बाँधते हैं। जिनके तीथकरकी सत्ता होती है वे मनुष्यगति तीर्थकर सहित तीसको बाँधते हैं। वंशा और मेघामें उत्पन्न हुए नारकी जिनके तीर्थकरकी सत्ता होती है वे पर्याप्ति पूर्ण होनेपर नियमसे मिथ्यात्वको त्याग सम्यग्दृष्टी होकर तीसका ही बन्ध करते हैं। १. यिल्ली घम्म य नारकापर्याप्तनोळ दकसम्यत्स्वं घटिसदु । "उत्पद्यते हि वेदक दृष्टिः स्वभरेषु कर्म । भूमिनृषु ।” एंदाराधनासारदोळ नियम पेळल्पटुंदपुरि यिल्लि आगमकोविदरु विवारिसिको बुदु, वेदकसम्यग्दृष्टिगळोळ येदादरू पठिसूदु ॥ ( इतरटिप्पण):-लब्ध्यपर्याप्त लब्ध्यरर्याप्तपर्याप्तनिवृत्यपर्याप्त-अपर्याप्तासंयतत्वं भोगभूम्यपेक्ष यिदल्लदे कर्मभूपियोळ घटियिसदु । अल्लि कपोतरे.श्याजघन्यमब नियमं षड्लेश्यासंभबं घटियिसदागि विचारिसिको बुदु ॥ मुंपेळ्द एकचत्वारिंशज्जीवपदंगळोळु तिर्यग्गतिसंबंध्यपर्याप्तपदंगळु पदिनारु । अवरोळु साधारणबादरसूक्ष्मप्रत्येकपदंगळमूळं कळदोड पदिमूरू । अवरोल आ कळेद मूरं नित्यचतुर्गतिनिगोदप्रतिष्ठिताप्रतिष्ठित प्रत्येक भेददि भेदिसि आर ६ कूडुत्तिरलु १९- पृथ्व्यप्तेजोवायुशदरसूक्ष्मलब्ध्यपर्याप्तंगळ कूडियटु ८ द्वोंद्रिय बोद्रियचतुरिंद्रियपंचेंद्रिया संज्ञि संज्ञि अंतु १३ साधारणबादरसूक्ष्म प्रत्येक १६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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