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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका १९४१ aur: त्रिक्रोधी iढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । ५ ॥ एकांतमिध्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशं गतोऽजस्कायिकद्वयकवधकः त्रिक्रोधी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवाम् । ६ ।। एकांतमिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रिय वशं गतोब्वाबुकायिकद्वयवधक त्रिक्रोधी बंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमन योगवान् । ७ ।। एकांतमिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशं गतोऽन्वनस्पति कायिकद्वयवधक स्त्रिक्रोषी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । ८ ॥ एकांत मिध्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशंगतोऽप्यस or frograधक: त्रिक्रोधी षंढवेदीहास्यरतिपुतः सत्यमनोयोगवान् । ९ ॥ एकांत मिध्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशंगतः तेजोवातकायिकद्वयवर्षक स्त्रिक्रोधी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । १० ।। एकांत मिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशं गतस्तेजोवनस्पतिकायिकद्वयवधकस्त्रिक्रोषी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । ११ ।। एकांत मिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशं गतस्तेजस्त्र सकायिकgaurस्त्रक्रोधी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । १२ ॥ एकांतमिध्यादृष्टिः स्पर्श- १० नेंद्रियवशंगतो वातवनस्पतिकायिकद्वयवधक स्त्रिक्रोधी षंडवेवी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगधान् । १३ ॥ एकांत मिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशंगतो वायुत्रसकायिकद्वयवधकस्त्रिक्रोधी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । १४ ।। एकांत मिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशंगतो वनस्पति कायिकद्वयवधस्त्रिक्रोषी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । १५ ।। ये दितु षड्जीवनिकायद्विसंयोगाक्षसंचारविधानदिदं जीववधा संयमभंगंगलोडनुच्चरण भेदंगळ पदिनध्वष्णुवु ।। यितु षड्जीवनि- १५ कायदोळ द्विसंयोगंगळप्पुवु । अ त वा व त्र कस्मिन्मिलितेऽमी चतुःसंयोगभंगाः पंचदश । षट्सु पंचसंयोग वधेष्वेकै कस्मिन्मिलितेऽमी पंचसंयोगभंगाः षट् । एकस्मिन् षट्संयोगबधे मिलिते षट्संयोगभंग एक:, मिलित्वा त्रिषष्टिः । पुनः तदेकान्त मिथ्यात्वाक्षे द्वितीये विपरीतमिथ्यात्वगतेऽपि त्रिषष्टिः । एवं पंचसु मिथ्यात्वेषु गत्वादावागते स्पर्शनेन्द्रियाक्षः रसनेन्द्रिये गच्छति । अयं च सर्वेन्द्रियेषु गत्वा मिथ्यात्वाक्षयुतः आदावागच्छति २० ५ अग्नि, वनस्पति आदि चार संयोगरूप पन्द्रह - भेदों में से एक-एकका हिंसक मिलानेपर चतु:संयोगी भंग पन्द्रह होते हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति या पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, त्रस आदि पाँचके संयोगरूप छह भंगों में से एक एकका हिंसक मिलानेपर पंचसंयोगी भंग छह होते हैं। तथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, त्रस इन छहों के संयोगरूप एकका हिंसक मिलानेपर छह संयोगी भंग एक होता है । ये सब मिलकर तिरसठ भंग होते हैं। २५ एकान्त मिथ्यात्वरूप अक्षकी तरह दूसरे विपरीत मिध्यात्वरूप अक्ष में भी तिरसठ भंग होते हैं । इस तरह पाँचों मिध्यात्वोंके तीन सौ पन्द्रह भंग होते हैं । इन सबमें स्पर्शन इन्द्र के वशीभूत के स्थान में रसना इन्द्रियके वशीभूत रखनेपर भी उतने ही भंग होते हैं । इस तरह पाँचों इन्द्रियों और छठे मनके अठारह सौ नब्बे भंग होते हैं। इन सबमें तीन ३० प्रकार क्रोध के स्थान में तीन प्रकारके मानको मिलानेपर भी उतने ही भंग होते हैं। इस तरह लोभपर्यन्त चार कषायोंके पचहत्तरसौ साठ भंग होते हैं। इन सबमें नपुंसकवेदके स्थान में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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