________________
१०
११००
हास्यको सत्यमनोयोगदोलमनंतानुबंरहित मिध्यादृष्टिय प्रथमकूटदोळि हंसपदाकाशमप्प अक्षवनिटुच्चरि सुवुदु । एकांत मिथ्यादृष्टिःस्पर्शनेन्द्रियवशंगतः पृथ्वी कायवधक: त्रिक्रोधी
गो० कर्मकाण्डे
वेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । मत्तमंते एकांत मिथ्यादृष्टिःस्पर्शनेन्द्रियवशंगतोऽकायवधक: त्रिक्रोधी षंडवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । मत्तमते एकांतमिध्यादृष्टिः स्पर्श५ नेन्द्रियवशंगतः तेजस्कायिकवधक: त्रिक्रोधी षंडवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । एकांतमिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेन्द्रियवशंगतो वायुकायिकवधकस्त्रिक्रोधी षंढवेवी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । एकांतमिध्यादृष्टिः स्पर्शनेन्द्रियवशंगतो वनस्पतिकायिकवधकस्त्रिक्रोधि षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । एकांतमिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशगतः त्रसकायिकवधकस्त्रिक्रोधी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । यदितनंतानुबंधिरहित मिथ्यादृष्टिय प्रथमकूटबोल्यु पृथ्वी कायादित्रस कायिक पय्र्यंतं प्रत्येकं भेदाक्षसंचरणदोळच्चारणषट्कमत्रकुं पृ| अ |ते | वा |व त्र |१|१|१|१|१|१
मत्तमा कूटदोळ मुन्निनंर्त एकांत मिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशगतः पृथ्व्यप्कायिकवधकः त्रिक्रोधी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् | १ || एकांत मिध्यादृष्टिःस्पर्शनेंद्रियवशं गतः पृथ्वीतेजस्कायिकद्वयवधक: त्रिक्रोधी षंढवेवी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । २ ।। एकांत मिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंन्द्रियवशगतः पृथ्वीवायुकायिकद्वयवधक स्त्रिक्रोधी षंढवेवी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । ३ ।। एकांत मिथ्यादृष्टिः स्पर्शनेंद्रियवशशंगतः पृथ्वोवनस्पतिकायिकद्वयवषकः त्रिक्रोषी पंढवेदी हास्यरतियुतः सत्यमनोयोगवान् । ४ ॥ एकांतमिध्यादृष्टिः स्पर्शनें ब्रियवशगतः पृथ्वीसकायिक
१५
अनन्तानुबन्ध्यूनप्रथमकूटे एकान्तमिथ्यात्वे स्पर्शचेन्द्रियपृथ्वीकाये क्रोषत्रये षंढवेदे हास्यद्विके सत्यमनोयोगे चाक्षे धूते एकान्तमिध्यादृष्टिः सर्शनेन्द्रियवशगतः पृथ्वी कायवषकः त्रिक्रोधी षंढवेदी हास्यरतियुतः सत्य मनोयोगोत्येकः । अत्र पृथ्वीका यवध मुद्धृत्य पंचस्त्र कायादिवधेष्वेकैकस्मिन् मिलितेऽमी प्रत्येकभंगाः षट् । २० पंचदशसु पृथ्व्यादिद्विसंयोगबधेष्वेकैकस्मिन् मिलितेऽमी द्विसंयोगभंगाः पंचदश । विशती पृथ्व्य तेजस्काय त्रयादित्रिसंयोगबधेष्वेकैकस्मिन्मिलितेऽमी त्रिसंयोगभंगा विशतिः । पंचदशसु पृथ्व्यप्तेजोवायुचतुष्कादिचतुः संयोगवधेष्वे
द्वारा जैसे प्रमादोंके भंग किये हैं; उसी प्रकार पांच मिध्यात्व आदिके अक्षसंचार आदि द्वारा आस्रव भंग होते हैं । वही कहते हैं
अनन्तानुबन्धी रहित प्रथम कूट में एकान्त मिथ्यात्व स्पर्शन इन्द्रिय, पृथ्वीका यकी २५ हिंसा, तीन प्रकारका क्रोध, नपुंसकवेद, हास्यरतिका युगल, सत्य मनोयोग ( असत्यमनोयोग ? ) में अक्ष रखनेपर एकान्त मिध्यादृष्टि, स्पर्शन इन्द्रियके वशीभूत, पृथ्वीकायका हिंसक, तीन प्रकारके क्रोधका धारक, नपुंसकवेदी, हास्यरतियुक्त, सत्यमनोयोगी जीव के आवका एक भंग होता है। इस भंगमें पृथ्वीकायकी हिंसा के स्थान में पाँच जलकाय आदिमें से एक-एक मिलानेपर प्रत्येक भंग छह होते हैं। पृथ्वी, जल या पृथ्वी, अग्नि आदि दो ३० संयोगरूप पन्द्रह भेदोंमें से एक-एकका हिंसक मिलानेपर द्विसंयोगी भंग पन्द्रह होते हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि या पृथ्वी, जल, पवन आदि तीनके संयोगरूप बीस भेदोंमें से एक-एक हिंसक मिलानेपर त्रिसंयोगी भंग बीस होते हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु या पृथ्वी,
जल,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org