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________________ ११४२ गोकर्मका ई प्रकारदिवं षड्जीवनिकायबोळु मत्तं त्रिसंयोगवधासंयमदोडने विशति विघोच्चरणंगळु चतुःसंयोगवधासंयमवोडने पंचदशोच्चरण भेदंगळं पंचसंयोगवधाऽसंयमदोडने षड्विधोच्चरणंगळु षट्संयोगवघासंयमवोडनेकविधोच्चरणमुमक्कुं। संदृष्टि-प्र६ । द्वि १५ । त्रि २० । च १५ । ६६।१॥ इंतु त्रिषष्टिप्रमितवधासंयमदोडनुच्चरणंगळं मिथ्यादृष्टिय प्रथमकूट प्रथमांकिताक्ष सप्तकदोल त्रिषष्टिप्रमितंगळप्पुवु । इल्लि मतमो प्रत्येकादिभंगंगळं साधिसुवुपायमो दुटदाउद दोर्ड प्रत्येक द्विसंयोग त्रिसंयोग चतुःसंयोग पंचसंयोग षट्संयोग वधंगळं क्रमदिदं स्थापिसियवर केळगेकद्वित्रिचतुः पंचषट् हारंगळं स्थापिसि ।।५।४।३।२।। यिल्लि यो दरिदं ५ मारं भागिसिदोवु प्रत्येक भंगंगळारप्पुवु। ६। मतमा भाज्यराशियारुमं पंचसयोगमुमं गुणिसि १० हारमनवर केळगिर्दोदुमनेरडुमं गुणिसि भागिसिदोडे लब्धं द्विसंयोग भंगंगळु पदिनय्वप्पुवु ३०४।३१+ मत्तमा मूवत्तमं मुंदण नाल्कुमं गुणिसि केळगणेरडं मूलं हारंगळं गुणिसि २३४५/६ भागिसिबंद लब्धं त्रिसंयोग भंगंगळिप्पत्तप्वु १२०| ३ |२|१| मत्तमा नूरिष्पत्तम मुंदण त्रिसंयोगवियं गुणिसिदोडे मूनूरश्वत्तक्कुमदं केळगण आहे.नाल्कु हारंगळं गुणिसि भागिसिद लब्धं चतुःसंयोगभंगंगळु पविनम्बप्पुषु ३६०।२।१ | मत्तं मूनूरश्वत्तं मुंदण |२४/५/६ १५ द्विसंयोगदिदं गुणिसिदोडेल नरिप्पत्ताकु- म केळगण इप्पत्त नाल्कुमदु हारंगळं गुणिसिदोडे नरिप्पतप्पदरिदं भागिसिद लब्धं पंचसंयोग भंगंगळारप्पुवु २०२। मत्तमा येळ नूरिप्पत्तं मुंब. १२०१६ कवविवं गुणिसिदोर्ड राशि तावन्मात्रमे एरिप्पत्तक्कु-1 मई केळगण नूरिप्पत्तमार हारंगळं गुणिसिदोडवुवुमेळुनरिप्पत्तक्कु मदरिदं भागिसिव लब्धं षट्संयोग भंगमो यक्कू ७२० ७२० तदा क्रोषत्रयाक्षः मानत्रये गच्छति । अयं च प्राम्बच्चरमलोभत्रयपर्यन्तं गत्वा इन्द्रियाक्षमिथ्यात्वाक्षाभ्यां सहादावागच्छति तदा षंढवेदाक्षः स्त्रीवेदे गच्छति । अयं च प्राग्वच्चरमपंवेदपर्यन्तं मत्वा कषायाक्षेन्द्रियाक्षमिथ्यात्वाक्षः सहादाबागच्छति तदा हास्यद्वयाक्षः अरतिद्वये गच्छति । अयं च वेदाक्षकषायाक्षेन्द्रियाक्षमिध्यास्त्रीवेद मिलानेपर भी उतने ही भंग-होते हैं। इस तरह तीनों वेदोंके बाईसहजार छह सौ अस्सी भंग होते हैं। इन सब भेदोंमें हास्यरति युगलके स्थानमें शोकअरति मिलानेपर भी ने ही भंग होते हैं। तब दोनों युगलोंके पैंतालीसहजार तीनसौसाठ भंग होते हैं। इस कूटमें भयजुगुप्सा नहीं है। अतः इन सबमें सत्यमनोयोगके स्थानमें असत्यमनोयोग २५ मिलानेपर भी उतने ही भंग होते हैं। ऐसा करनेसे अन्तिम वैक्रियिकयोगपर्यन्त दस योगों के चारलाख तिरपनहजार छहसौ भंग होते हैं। मिथ्यात्वमें अनन्तानुबन्धीका अनुदय पर्याप्त दशामें ही होता है इससे औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कर्माणयोगका ग्रहण नहीं किया है। अनन्तानुबन्धीरहित मिध्यादृष्टि कूट में इतने भंग होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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