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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ११४३ मितिदोंदु क्रममरियल्पडुगुं । प्र६ । द्वि १५ । त्रि २० । च १५ । ५ ६ । ष १॥ पितु त्रिषष्टि प्रमितभंगंगळो देकांतमिथ्यात्वस्पर्शनेंद्रियकोधत्रयषंडवेवहास्यद्विकसत्यमनोयोगमेंबिवरोळिउल्पवृक्षमोदक्कप्पुवल्लि प्रयमकांतमिथ्यात्वाशं द्वितीयविपरीतमिथ्यात्वक संचरिसिदोमित त्रिषष्टिप्रमितोच्चरणभेदंगळप्पुर्वितल्ला मिथ्यात्वंगळय्वरोळं संचरिसिदक्षं मोदलिंग बंदागळु स्पर्शनेंद्रियदोलिई द्वितीयाक्षं स्वस्थानद्वितीयरसने द्रियकक्षं संचरिसुगु- मा परस्थानद्वितीयेद्रि. ५ याक्षं तन्नेल्ला प्रिंद्रियंगळोळं संचरिसि तानुं मिथ्यात्वाक्षमुमेरडं मोदलिंग वरलोडं कोधत्रयदोलिई परस्थानतृतीयाक्षं स्वस्थानमानत्रयक संचरिसुगुमनुवं पूर्वोक्तक्रमदि चरमलोभत्रयपथ्यंत संच. रिसि तानुमिद्रियमिथ्यात्वाक्षद्वययुतमागि मोदल्गे वरलोडं षंडवेवदोलिई परस्थानचनुाक्षं स्त्रीवेदक्के संचरिसुगुमदुर्बु पूर्वोक्तक्रमदिदं चरमपुंवेद पय्यंत पोगि तानें क्रोधेंद्रियमिथ्यात्वाक्षत्रययुतमागि मोदल्गे वरलोडं हास्यद्वयदोलिई परस्थानपंचमाक्षमरतिद्वयक्के संचरिसुगुमो रतिद्वय- १० दोलिई परस्थानपंचमाक्षं तानुं वेदक्रोधेंद्रियमिथ्यात्वाक्षचतुष्टययुतमागि मोदल्गे वरलोडनिदु भयद्वयरहितप्रथमकूटमपुरिदं सत्यमनोयोगदोलिई परस्थानषष्टाक्षं स्वस्थानदो तन्न द्वितीयभेदमप्प असत्यमनोयोगक्के संचरिसुगुमी परस्थानषष्टयोगाक्षं पूर्वोक्तकमदिदंतन्न चरमवैक्रियिक काययोग पथ्यंत संचरिसि निदोडागळा केळगणक्षंगळनितु तम्म तम्म चरम दोलिट्टेडागका कूटोच्चरणं परिसमाप्तियक्कु-। मीयों दोंदु परस्थानाक्षं संचरिपागळु पृथ्व्यादिगळ वधासंयम. १५ भेदंगळु त्रिषष्टिप्रमितंगळागुत्तं बर्युवे बिदरियल्पडुगु- मितुळिव मिथ्यादृष्टिय सर्वकूटंगळोळं सासादनादिगुणस्थानंगळ कूटंगळोळं यथासंभवमुच्चरणविधानमिते यक्षसंचारविधानविंदमरियल्पडुगु-। मनंतरं भंगानयनप्रकारमं पेळदपरु : अणरहिदसहिदकडे बावत्त रिसय सयाण तेणउदी। सट्ठी धुवा हु मिच्छे भयदुगसंजोगजा अधुवा ॥७९६॥ अनंतानुबंधितरहित सहितकूटे द्वासप्ततिशतं शतानां त्रिवनतिः। षष्टिध्रुवाः खलु मिथ्या. दृष्टौ भयद्विकसंयोगजा अब्रुवाः ॥ त्वाक्षस्सहादावागच्छति तदा भयद्वयोनकूटत्वात्सत्यमनोयोगाक्षः असत्यमनोयोगे गच्छति । अयं च प्राग्वच्चरमक्रियिकयोगपर्यन्तं गच्छति तदा तदधस्तनाक्षाः सर्वे स्वचरमे स्युरिति तत्कूटोच्चरणं समाप्त । एवं शेषमिथ्यादृष्टिकूटसासादनादिकूटेष्वपि ज्ञातव्यं ॥७९५॥ अथ भंगानयनप्रकारमाह यहाँ अक्षके अपने अन्ततक पहुँचनेपर उस सहित सब पहले अक्ष आदि स्थानमें आ जाते हैं। और उत्तर अक्ष दूसरे स्थानपर आ जाता है। जैसे पांच मिथ्यात्वका अक्ष जब अज्ञान मिथ्यात्वतक पहुँचा तब मिथ्यात्वका अक्ष एकान्त मिथ्यात्वपर आ गया और उत्तर इन्द्रिय अक्ष रसनारूप दसरे स्थानको प्राप्त हआ। ऐसा होते-होते सब अक्ष जब अन्त स्थान को प्राप्त होते हैं तब अक्ष संचार समाप्त होता है। इस प्रकार अनन्तानुबन्धीरहित मिथ्यादृष्टीके प्रथम कूट के उच्चारणका विधान हुआ। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टिके शेष कूट ३० तथा सासादन आदिके कूट के उच्चारणका विधान जानना 1|७९५।। आगे भंगोंका प्रमाण लानेका प्रकार कहते हैंक-१४४ २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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