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________________ गो. कर्मकाण्डे है। उपयोग ज्ञान और दर्शन रूप है । गुण अन्वयी होते हैं, पर्याय व्यतिरेकी होती है। अथवा द्रव्यमें भेद करनेवाले धर्मको गुण और द्रव्यके विकार को पर्याय कहते हैं। द्रव्य इन दोनोंसे संयुक्त, अयुत सिद्ध और नित्य होता है। काय, वचन और मनकी क्रिया योग है जिससे आस्रव होता है जिसकी विशेषता तीव, मन्द, ज्ञात, अज्ञात भावों, अधिकरण और वीर्यसे होती है। जो आत्माका घात करती है, वह कषाय है। चारित्रमोहके भेदरूप कषायवेदनीयके उदयसे आत्मामें जो कलुषता क्रोधादिरूप होती है उसे आत्मविघातक होनेसे कषाय कहते हैं। हास्यादि कषायवत् न होनेसे नोकषाय कहलाती हैं। क्रोधादिकी तीव्रताको लेश्या द्वारा निर्दिष्ट करते हैं, और आसक्तिकी तीव्रता मन्दताको अनन्तानुबन्धी आदि द्वारा निर्दिष्ट करते हैं। जो क्रोधादिक जीवके सुख-दुख रूप अनेक प्रकारके धान्यको उत्पन्न करनेवाले कर्मरूप खेतको कर्षण करते हैं अर्थात् जोतते हैं और जिनके लिए संसारकी चारों गतियाँ मर्यादा-मेंढ रूप हैं, इसलिये उन्हें कषाय कहते हैं। वे कर्मों के श्लेषका कारण हैं-निक्षेपादिकी अपेक्षा योग और कषायके अनेक भेद हैं। कर्मोंके संयोगके कारणभूत जीवके प्रदेशोके परिस्पन्दको भी योग कहते हैं, अथवा मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिके प्रति जोवका उपयोग या प्रयत्न विशेष योग है। योग, समाधि, ध्यान, सम्यक् प्रणिधान एकार्थवाची है। क्रियाकी उत्पत्तिमें जो जीवका उपयोग है वही योग है । ( विशेष विवरणकं लिए जैन सि. कोष देखें)। कषायसे अनरंजित जीवकी योगकी प्रवृत्तिको मावलेश्या कहते हैं। शरीरके रंगको द्रव्य लेश्या कहते हैं । जो कर्मोंसे आत्माको लिप्त करती है उसे लेश्या कहते हैं। मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये बन्धके हेतु हैं। कषाय सहित होनेपर जीव कर्मके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है, वह बन्ध है । अथवा कर्म प्रदेशोंका आत्मप्रदेशोंमें एक क्षेत्रावगाह हो जाना बन्ध है। वाचक शब्दोंकी अपेक्षा बन्ध संख्यात, अध्यवसाय स्थानोंकी अपेक्षा असंख्यात, तथा कर्मप्रदेशोंकी अथवा कर्मोंके अनुभाग अविभागी प्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा अनन्त प्रकार है। ज्ञानावरणादिक कर्मबन्ध है और औदारिकादि नोकर्मबन्ध है। क्रोधादि परिणाम भावबन्ध है। ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्मोके उस कर्मक योग्य ऐसा जो पुद्गल द्रव्यका स्व-आकार (?) वह प्रकृति बन्ध है। योगके वशसे कर्म स्वरूपसे परिणत पदगल स्कन्धोंका कषायके वशसे जीवमें एक स्वरूपसे रहनेके कालको स्थितिबन्ध कहते हैं । शुभाशुभ कर्मकी निर्जराके समय सुखदुःख रूप फल देनेकी शक्तिवाला अनुभाग बन्ध है । कर्मरूपसे परिणत पुदगल स्कन्धोंका परिमाणओंकी जानकारी करके निश्चय करना प्रदेश बन्ध है। अधःप्रवृत्तकरण वह है जिसमें से ऊपरके समयवर्ती जीवोंके परिणाम नीचेके समयवर्ती जीवोंके परिणामोंके सदश-अर्थात् संख्या और विशुद्धिकी अपेक्षा समान होते हैं। अपूर्वकरणमें भिन्न समयवर्ती जीवोंमें विशुद्ध परिणामोंकी अपेक्षा कभी भी सादृश्य नहीं पाया जाता, किन्तु एक समयवर्ती जीवोंमें सादृश्य और वैसादृश्य दोनों पाये जाते हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान वह है जिसके कालके प्रत्येक समयमें एक ही परिणाम होता है। कृष्टिका अर्थ कर्म अनुभागको कृश करना होता है। प्रतिसमय बँधनेवाले कर्म या नोकर्मके समस्त परमाणुओंके समूहको समयप्रबद्ध कहते हैं। विवक्षित समयप्रबद्धमें समान अनभाग शक्तिके अंश-अविभाग प्रतिच्छेद जिस परमाणमें पाये जायें उसे वर्ग कहते हैं। जिन परमाणुओं में समान संख्यावाले अविभाग प्रतिच्छेद पाये जाय उन सब वर्गों के समूहको वर्गणा कहते हैं। जिनमें अविभाग प्रतिच्छेदोकी समान वृद्धि पायी जाये उन वर्गणाओंके समूहको स्पर्धक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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