SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 787
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गणितात्मक प्रणाली १४१५ कहते हैं। गुणाकार रूपसे हीन-हीन द्रव्य जिसमें पाया जाये उसको गुणहानि कहते हैं । गुणहानिके समयसमूहको गुणहानि आयाम कहते हैं । गुणहानियोंके समूहको नानागुणहानि कहते हैं। दो गणहानि आयामके प्रमाणको निषेकहार कहते हैं। नानागुणहानि प्रमाण दोके अंक रखकर परस्पर गुणा करनेसे जो राशि पन्न हो उसे अन्योन्याभ्यस्त राशि कहते हैं। समान वृद्धि या हानिके प्रमाणको.चय कहते हैं । 'निषेचनं निषेकः' इस निरुक्तिके अनुसार कर्म परमाणओंके स्कन्धोंके निक्षेपण करने का नाम निषेक है। आयवजित सात कर्मोकी अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिमें-से उन-उनका आबाधाकाल घटाकर जो शेष रहता है, उतने कालके जितने समय होते हैं उतने ही उस-उस कर्मके निषेक जानना चाहिए। आयुकर्मकी स्थिति प्रमाण कालके समयों जितने उसके निषेक हैं, क्योंकि आयुकी आबाधा पूर्वभवकी आयुमें व्यतीत हो चुकती है। प्रथम निषेक अवस्थित हानिसे जितनी दूर जाकर आधा होता है उस अध्वान ( अन्तराल या काल) को 'गुणहानि' कहते हैं। जहाँ अपनी-अपनी द्वितीयादि वर्गणाके वर्गोमें अपनी-अपनी प्रथम वर्गणाके वर्गोंसे एक-एक अविभागी प्रतिच्छेद बढ़ता अनुक्रमसे है, ऐसे स्पर्धकोंका समूह प्रथम गुणहानि कहलाता है। इस प्रथम गुणहानिके प्रथम वर्गमें जितने परमाणु पाये जायें, उनमें एक-एक चय प्रमाण घटते द्वितीयादि वर्गणाओंमें वर्ग जानना चाहिए । इस क्रमसे जहाँ प्रथमगुणहानिकी प्रथम वर्गणाके वर्गोसे आधा जिस वर्गणामें वर्ग हों वहाँसे दूसरी गुणहानिका प्रारम्भ होता है । वहाँ द्रव्य चय आदिका प्रमाण भी आधा-आधा होता है। एक जीवके एक कालमें जितनी प्रकृतियोंकी सत्ता पायी जावे उनके समूहका नाम स्थान है। उस स्थानकी एक-सी समान संख्या रूप प्रकृतियोंमें जो संख्या समान ही रहे परन्तु प्रकृतियाँ बदल जायें तो उसे भंग कहते हैं। जिस कर्मके बन्धका अभाव होकर फिर वही कर्म बंधे उसे सादिबन्ध कहते हैं। जिसके बन्धका अभाव नहीं हुआ वह अनादिबन्ध है। जिस बन्धका आदि तथा अन्त न हो वह ध्रुवबन्ध है और अन्त आ जाये वह अध्रुव बन्ध है। जिन कर्म प्रकृतियोंमें कोई प्रकृति विरोधी नहीं होती है उन्हें अप्रतिपक्षी कहते हैं । जिन प्रकृतियोंमें आपसमें विरोधीपना है वे सप्रतिपक्षी कहलाती हैं । जीवोंकी उत्कृष्ट आबाधासे भाजित जो अपने-अपने कर्मों को उत्कृष्ट स्थिति है उसके प्रमाणको आवाधा काण्डक कहते हैं। पर्याय धारण करनेके पहले समयमें तिष्ठते हए जीवके उपपाद योगस्थान होते हैं । शरीर पर्याप्तिके पूर्ण होनेके समयसे लेकर आयु के अन्त तक परिणाम योगस्थान कहलाते है। एकान्तानुवृद्धि योगस्थान पर्याय धारण करनेके दूसरे समयसे लेकर एक समय कम शरीर पर्याप्तिके अन्तर्मुहर्तके अन्त समय तक होते हैं, जिनमें नियमकर समय-समयप्रति असंख्यातगुणी अविभाग प्रतिच्छेदोंको वृद्धि होती है । बँधे हुए कर्मकी दश अवस्थाएँ अथवा दश करण होते हैं । कर्मोंका आत्मासे सम्बन्ध होना बन्ध है । जो कर्मोकी स्थिति तथा अनुभागका बढ़ना है वह उस्कर्षण है। जो बन्ध रूप प्रकृतिका दूसरी प्रकृतिरूप परिणम जाना है वह संक्रमण है। जो स्थिति तथा अनुभागका कम हो जाना वह अपकषण है। उदयकालके बाहर स्थित, अर्थात जिसके उदयका अभी समय नहीं आया है ऐसा जो कर्म द्रव्य उसको अपकर्षणके बलसे उदयावली कालमें प्राप्त करना उदोरणा है। जो पुद्गलका कर्मरूप रहना वह सत्व है। जो कर्मका अपनी स्थितिको प्राप्त होना अर्थात् फल देनेका समय प्राप्त हो जाना वह उदय है। जो कर्म उदयावलीमें प्राप्त न किया जाये अर्थात् उदीरणा अवस्थाको प्राप्त न हो सके वह उपशान्तकरण है। जो कर्म उदयावलिमें भी प्राप्त न हो सके और संक्रमण अवस्थाको भी प्राप्त न हो सके उसे निधत्तिकरण कहते हैं। जिस कर्मकी उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण और अपकर्षण ये चारों ही अवस्थाएँ न हो सकें उसे निकाचितकरण कहते हैं। जो प्रकृतियां अपने ही रूप उदय फल देकर नष्ट हो जायें वे स्वमुखोदयी है, उनका काल एक समय अधिक आवलि प्रमाण है, वही क्षयदेश है। जो प्रकृतियाँ अन्य प्रकृतिरूप उदयफल देकर विनष्ट हो जाती क-१७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy