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________________ गोकर्मकाण्डे हैं, वे परमुखोदयी हैं, उनके अन्तकाण्डककी अन्त फालि क्षयदेश है । एक समय मात्रमें संक्रमण होनेको फालि कहते हैं । समय समूहमें संक्रमण होना काण्डक है । अधःप्रवृत्त आदि तीन करण रूप परिणामोंके बिना ही कर्म प्रकृतियोंके परमाणुओंका अन्य प्रकृति रूप परिणमन होना वह उद्वेकन संक्रमण है । मन्द विशुद्धतावाले जीवकी, स्थिति अनुभागके घटानेरूप, भूतकालीन स्थितिकाण्डक और अनुभाग काण्डक तथा गुणश्रेणी आदि परिणामोंमें प्रवृत्ति होना विध्यात संक्रमण है । बन्धरूप हुई प्रकृतियोंका अपने बन्धमें सम्भवती प्रकृतियोंमें परमाणुओंका जो प्रदेश संक्रम होना वह अधःप्रवृत्त संक्रमण है । जहाँपर प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणीके क्रमसे परमाणु-प्रदेश अन्य प्रकृतिरूप परिणमें सो गुण संक्रमण है । जो अन्तके काण्डककी अन्तको फालिके सर्व प्रदेशोंमें से जो अन्य प्रकृतिरूप नहीं हुए हैं उन परमाणुओंका अन्य प्रकृतिरूप होना वह सर्व संक्रमण है। उत्तर प्रकृतियोंमें हो संक्रमण होता है, किन्तु दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयका तथा चारों आयुओंका परस्परमें संक्रमण नहीं होता। संसारी जीवोंके अपने जिन परिणामोंके निमित्तसे शुभकर्म और अशुभ कर्म संक्रमण करें, अर्थात् अन्य प्रकृति रूप परिणमें उसको मागहार कहते हैं। त्रिकोण रचनामें समयप्रबद्धका प्रमाण विवक्षित वर्तमान समयमें तिर्यक् रूप हर एक समयमें एक समयप्रबद्ध बँधता है और एक समयप्रबद्ध ही उदय रूप होता है । सश्व द्रव्य कुछ कम डेढ़ गुणहानि कर गुणा हुआ समयप्रबद्ध प्रमाण है जो त्रिकोण रचनाके सब द्रव्यको जोड़ देनेसे नियमसे इतना ही होता है । उपयंक्त परिभाषाएँ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, जैन लक्षणावली, राजेन्द्र अभिधान कोश, षट्खण्डागम, धवल, गोम्मटसार, जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका आदि ग्रन्थोंसे ली गयी हैं। इतनी जानकारीके पश्चात् लब्धिसार एवं क्षपणासारकी पूर्व पीठिका बाँधने हेतु अगला अधिकार दिया जा रहा है जो मख्यतः पण्डित टोडरमलका प्रयास है। उसे याद करनेके पश्चात् ही गणितीय प्रणालीमें प्रवेश करना लाभप्रद होगा। उपर्युक्त लक्षण केवल संकेत मात्र हैं जिनके आलम्बनसे कर्म सिद्धान्तका अनुभव वृद्धिंगत हो सके । 58. अर्थके प्रयोजन पं. टोडरमलने निम्न पद्यमें अर्थसार निर्दिष्ट कर दिया है "नेमिचन्द आह्लादकर माधवचन्द प्रधान । नमों जास उज्जास तें जाने निज गुण थान । लब्धिसार कौं पायक करिकै क्षपणासार । हो है प्रवचनसार सो समयसार अविकार ॥" सम्यक्दर्शनका सहकारी सम्यक्ज्ञान है। मोक्षमार्ग सम्यक्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यक्ज्ञानका संयुक्त रूप, आत्मस्वरूप है । सम्यक्दर्शन तीन प्रकार-औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक प्रकारका है। सम्यकचारित्र दो प्रकार-देशचारित्र और सकलचारित्र प्रकारका है। देशचारित्र क्षायोपशमिक ही है और सकलचारित्र तीन प्रकार है-क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक । इस प्रकार सम्यकदर्शन सम्यक्चारित्रकी लब्धि होनेपर केवलज्ञान पाकर सयोगी, अयोगी जिन और सिद्धपद प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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