________________
गणितात्मक प्रणाली
१४१७
जीवोंके परिणमनके साथ-साथ कोंके बन्ध, सत्त्व उदय अवस्था किस प्रकार परिणमन करती है, विशेष रूपसे ज्ञात करना युक्त है। इसी प्रकार चौदह गुणस्थानोंका स्वरूप भी विशेष जानने योग्य है। दशकरणोंका भी विशेष प्रयोजन होता है इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
नवीन पुद्गलोंका कर्म रूप आत्माके साथ सम्बन्ध होना बन्ध है। यह चार प्रकारका है-प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध । कर्मरूप होने योग्य जो कार्मण वर्गणा रूप पुद्गलका ज्ञानावरणादि मूल प्रकृति वा उत्तर प्रकृति रूप परिणमना सो प्रकृतिबन्ध है। जितनी प्रकृतियोंका जहाँ बन्ध सम्भव हो वहाँ उतनी प्रकृतियोंका बन्ध जानना चाहिए। उन प्रकृतिरूप जितने पुद्गल परमाणु परिणमें उनका प्रमाण रूप प्रदेशबन्ध है, क्योंकि प्रदेश नाम पुद्गल परमाणुका है। वह अभव्य राशिसे अनन्तगुणा तथा सिद्धराशिके अनन्तवाँ भागमात्र प्रमाण होता है । इनको मिलकर एक कार्माण वर्गणा होती है । उतनी ही वर्गणाएँ मिलकर एक समयप्रबद्ध होता है। इतने परमाणु प्रति समय कर्मरूप होकर एक जीवके बँधते हैं इसलिए इसे समयप्रबद्ध कहते हैं। यह सामान्य प्रमाण है। विशेष योगोंकी अधिक और हीनताके अनुसार समयप्रबद्धमें परमाणुओंकी अधिक और हीनताका अनुपात जानना चाहिए ।
___ एक समयमें ग्रहण किया हुआ जो समयप्रबद्ध है वह यथासम्भव मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृति रूप परिणमता है। इन प्रकृतियोंके परमाणुओंके विभागका विधान, बन्ध सत्त्व तथा उदय द्वारा प्रदेशबन्ध रूपमें होता है। जिस प्रकृतिके जितने परमाणु बँटनमें आते हैं उस प्रकृतिका उतने परमाणुओंका समूह मात्र समयप्रबद्ध जानना चाहिए।
जो परमाणु प्रकृतिरूप बंधे, वे परमाणु उस रूप जितने कालके लिए बँधते हैं उस स्थिति प्रमाणके लिए स्थिति बन्ध होता है । वहाँ एक समयमें जो स्थिति बन्ध होता है उसमें बन्ध समयसे लगाकर आबाधाकाल तक वहाँ बँधी हुई परमाणुओंके उदय आनेकी योग्यताका अभाव है, इसलिए वहाँ निषेक रचना नहीं है । उसके पश्चात् प्रथम समयसे लेकर बंधी हुई स्थितिके अन्तिम समय तक प्रत्येक समयमें एक-एक निषेक उदय आने योग्य हो जाता है । इसलिए प्रथम निषेककी स्थिति एक समय अधिक आबाधाकाल मात्र होती है। द्वितीय निषेककी स्थिति दो समय अधिक आबाधाकाल मात्र होती है। इस क्रमसे द्विचरम निषेककी स्थिति एक समय कम स्थिति बन्ध प्रमाण होती है । अन्तिम निषेककी स्थिति सम्पूर्ण स्थितिबन्धकी समय राशि प्रमाण होती है।
उदाहरण : मोहकी सत्तर कोडाकोड़ी सागरकी स्थिति बंधी हो तो आबाधाकाल सात हजार वर्षका होगा। प्रथमनिषेककी स्थिति एक समय अधिक सात हजार वर्ष होगी। द्वितीयादि निषेकोंकी क्रमसे एक-एक समय अधिक होगी और अन्तिम निषेककी सत्तर कोडाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति होगी। इस प्रकार आयु कर्मको छोड़कर शेष सात कर्मोके लिए यह विधान है।
आयुकी स्थितिबन्धमें आबाधाकाल नहीं गिनते हैं क्योंकि उसका आबाधाकाल पूर्व पर्यायमें ही व्यतीत हो चका होता है । वहाँ उस कालके उदय होनेकी योग्यता नहीं होती इसलिए आयुके प्रथम निषेककी स्थिति एक समय, द्वितीय निषेककी दो समय आदि होती है। इस क्रमसे अन्तिम निषेककी स्थिति सम्पूर्ण स्थितिबन्ध मात्र स्थिति होती है। निषेक रचनाका वर्णन गोम्मटसार कर्मकाण्डमें उपलब्ध है। त्रिकोणयन्त्र रचनाका विवरण द्रष्टव्य है।
बन्ध होनेपर शक्ति ऐसी होती है जो उदयकालमें होनाधिक विशेष लिये जीवके ज्ञान आच्छादित करती है, इत्यादि । इस प्रकार बन्ध होते हुए शक्तिके होनेका नाम अनुभाग बन्ध है। वहाँ एक प्रकृतिके
एक समयमें जो परमाणु बंधते हैं उनमें नाना प्रकारकी शक्ति होती है। शक्तिके अविभागी अंशका नाम Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org