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________________ ९४७ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका क्रमशः क्रमदिदं पेळल्पडुगुमल्लि। विशतिप्रकृतिस्थानं सामान्यसमुद्घातकेवलिय प्रतरलोकपूरगंगळोळ सामान्य समुद्घातकेवलिय प्रतरलोकपूरणंगळो काम्र्मणकायदोळ दयिसुव तीत्यरहिमोदेयक्कुं । २०॥ मत्तमेकविंशतिप्रकृत्युदयस्थानंगळ, देवगतिय विग्रहकार्मणदोनोंदु २१ तोर्थसमुद्घात केवलियोळोंदु २१ मनुष्यगतिविग्रहगतियोळ सुभगादेययशस्कोत्तियुग्मत्रयदोळे : टप्पुवु २१ संक्षिपंचेंद्रियबोळमत एंटप्पुवु २१ [विकलासंज्ञिजीवंगळोळ. प्रत्येकयशोयुग्मकृत ५ भंगंगाळदमेरउरडागल्वे टप्पत् वि २१ पृथ्व्यप्तेजोबादरवायुप्रत्येकवनस्पतिगळोळमा प्रकारदिवमेरडेरड भंगंगळागळ मवरीळ पत्तप्पुवु २१ मतं पृथ्व्यप्तेजोवायुसूक्ष्मंगळोळ साधारणवनस्पतिबादरसूक्ष्मंगळोळं प्रत्येकमेकैक भंगमपुरिदमवरोज आरु भंगंगळप्पुवु २१ नारकरोगोंदु २१ अंतु पर्याप्तरोळ नाल्वत्तमूरु २१ लब्ध्यपर्याप्तजीवंगळोळ, पदिनेळ, २१ कूडि एकविशतिस्थानदोन भंगंगळरुवत्तप्पुवु २१ पर्याप्तजीवंगळ शरीरमिश्रकालदोळ पृथिव्यप्तेजोवायु- १० ५. घातकेवलिनः प्रतरलोकपूरणकार्मणकाये उदययोग्यमतीर्थमेकं २०। एकविंशतिकानि पर्याप्तानां देवगति विग्रहकार्मणे एक, तीर्थसमुद्घाते एकं, मनुष्यगतिविग्रहगती सुभगादेययशस्कीतियुग्मकृतान्यष्टौ । संज्ञिन्यपि तथवाष्टौ । विकलासंजिषु प्रत्येकं यशोयुग्मकृते द्वे द्वे भूत्वाष्टौ । बादरपृथ्व्यप्तेजोवायुप्रत्येकेष्वपि तथा दश । सूक्ष्मपृथ्व्यप्तेजोवायुषूभयसाधारणयोश्चककं भूत्वा षट् । नारकेष्वेकं । लख्यपर्याप्त सप्तदशेति षष्टिः २१ । होता है। उसमें एक ही भंग है । इक्कीसके भंग कहते हैं-देवगतिमें विग्रहगतिरूप कार्माण- १५ में एक ही भंग है । तीर्थंकरके समुद्घात सम्बन्धी कार्माणमें एक ही भंग है। मनुष्यगतिमें विग्रहगति सम्बन्धी कार्माणमें सुभग, आदेय, यश-कीर्ति इन तीन युगलों में से एक-एकका उदय होनेसे आठ भंग हैं। संझी पंचेन्द्रिय सम्बन्धी कार्माणमें भी उसी प्रकार आठ भंग हैं। दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंझीके कार्माणमें यश-कीर्तिके युगलसे दो-दो भंग होनेसे आठ भंग होते हैं। बादर पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक बनस्पति इन पांचोंके भी कामोणमें २० यश कीर्तिके युगलसे दो-दो भंग होनेसे दस भंग होते हैं। सूक्ष्म पृथ्वी, अप , तेज, वायु, सूक्ष्म बादर साधारण इन छहोंके कार्माणमें एक-एक ही भंग होनेसे छह भंग होते हैं । नारकीके कार्माणमें एक ही भंग है। लब्ध्यपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायादिके भेदसे सतरह प्रकार है । उनके कार्माणमें एक-एक ही भंग होनेसे सतरह हुए। इस प्रकार इक्कीसके स्थानमें १+१+2+८+ ८+१०+६+१+१७%६० भंग होते हैं। १. अत्र पर्याप्तशब्देन नित्यपर्याप्ता एव गृह्यते । कथमिति चेत् पर्याप्तनामकम्मोदय सद्भावात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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