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________________ ७५३ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका संयमावलंबनदिदं मोहनीयोदयद त्रिपंचाशदुत्तरत्रिशताधिकसप्तसहस्रप्रमितप्रकृतिविकल्पंगळनरिय दु शिष्यनाचार्यानिंदं संबोधिसल्पढें ॥ अनंतरं गुणस्थानदोळ संभविसुव लेश्यगळं पेळ्दपरु : मिच्छचउक्के छक्कं देसतिये तिण्णि होंति सुहलेस्सा। जोगित्ति सुक्कलेस्सा अजोगिठाणं अलेस्सं तु ॥५०३ ॥ मिथ्यादृष्टिचतुष्के षट्कं देशवतित्रये तिस्रो भवंति शुभलेश्याः। योगिपयंतं शुक्ललेश्या अयोगिस्थानमलेश्यं तु ॥ मिथ्यादृष्टिचतुष्के षट्कं मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टिगळेब गुणस्थानचतुष्कोळ प्रत्येक लेश्याषट्कमक्कुं। देशवतित्रये तिस्रो भवंति शुभलेश्याः देशसंयतप्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयतरेंब गुणस्थानत्रयदोछु प्रत्येकं शुभलेश्यात्रयमक्कुं। योगिपर्यंतं १० शुक्ललेश्यामेलपूर्वकरणादिसयोगकेवलिगुणस्थानपय॑तं शुक्ललेश्ययों देयकुं। तु मते अयोगिस्थानमलेश्यं अयोगिगुणस्थानं लेश्यारहितमकुं। इंतु गुणस्थानदोळ पेळल्पट्ट लेश्यगळनाश्रयिसि मोहनीयोदयस्थानविकल्पंगळ संख्येयुमं प्रकृतिविकल्पंगळ संख्ययुमं गाथाद्वदिदं पेळ्दपरु : पंचसहस्सा बेसय सत्ताणउदी हवंति उदयस्स । ठाणवियप्पे जाणसु लेस्सं पडि मोहणीयस्स ॥५०४॥ पंचसहस्राणि द्विशतसप्तनवतिभवंति उदयस्य। स्थानविकल्पान्जानीहि लेश्यां प्रतिमोहनीयस्य ॥ संयमावलंबेन मोहनीयोदयप्रकृतयोऽपि स्थानवदेकीकृते त्रिपंचाशदप्रत्रिशताधिकसप्तसहस्राणोति जानीहि ॥५०२॥ अथ गुणस्थानेषु संभवल्लेश्याः प्राह मिथ्यादृष्टयादिचतुर्गुणस्थानेषु प्रत्येकं लेश्याः षड् भवति । देशसंयतादित्रये शुभा एव तिस्रः । उपर्य- २० पूर्वकरणादिसयोगपयंतमेका शुभलेश्यैव । तु-पुनः अयोगिगुणस्थानं लेश्यारहितं ॥५०३॥ उक्तलेश्यामाश्रित्य तत्संस्थानप्रकृतिसंस्थे गाथाद्वयेनाह संयमका अवलम्बन लेकर मोहनीयकी उदय प्रकृतियोंको भी स्थानोंकी तरह एकत्र करके अर्थात प्रमत्त आदि तीनकी तीन सौ चारको चौबीससे गणा करके उनमें अ करण आदिके सत्तावन मिलानेपर सात हजार तीन सौ तिरपन प्रकृतियां होती हैं ।।५०२॥ २५ अब गुणस्थानोंमें लेश्या कहते हैं मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानों में से प्रत्येकमें छह लेश्या होती हैं। देशसंयत आदि तीनमें तीन शुभलेश्या ही होती हैं। ऊपर अपूर्वकरणसे सयोगी पर्यन्त शुक्ललेश्या ही है। और अयोगी गुणस्थान लेश्यासे रहित है ।।५०३॥ उक्त लेश्याओंका आश्रय लेकर मोहके स्थानों और प्रकृतियोंकी संख्या दो गाथाओंसे ३० कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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