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________________ १०५६ ३० गो० कर्मकाण्डे पर्य्याप्तपर्य्यायसहकारिकारणत्रयोविंशतिप्रकृतिस्थानमं कटुवागळा जीवंगळोळ, यथायोग्यपंचसत्वस्थानं गळोळे केक सत्वस्थानयुतरागिष्णुवु । पेळल्पट्टुवु: सामान्यं समवायश्चाप्येकैकत्र समाप्तितः । -- अंतरेणाश्रयं न स्यान्नाशोत्पादिषु को विधिः । - ६५ आ. मी. सामान्यमुं समवायमुमो दो दरोळ, समाप्तियप्पुरिदं सामान्यसमवायंगळगनंत रमक्कुमदरिदं साधारणरूपदिदं समवायरूपदिनिर्द्द नाशोत्पादिद्रव्यंगळोळ, को विधि: सामान्यसमवायप्रमाणविषयमा वुदु ? अवरोळोंदु जीवद्रव्यमुं साधारणत्त्रक्कं समवायत्ववकं विषयमत बुदत्थं एक बोडवु विशेषरूपदिदं पृथग्रूपदिनिद्देपुवपुर्दारवं । विधिशब्दमेतु प्रमाणवाचकमक्कुर्म दोडे : सदेक नित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः । : सर्व्वथेति प्रति पुष्यंति स्थावितीहते ॥ - स्वयंभू स्तो. १०१ इलो. सवेकनित्यवक्तव्यंगळुमवर विपक्षंगळ असवनेका नित्यावक्तव्यंगळं नयंगळप्पूर्व र्त दोर्ड नयविषयत्वविवं ह ई नयविषयंगळल्लि सर्व्वयेति सर्व्वथा ये वितु प्रदुष्यति दुयंगळवु । स्यादिति स्वार्त्त वितु पुष्यंति सुनयंगळवु ते तब मते जिनागमबोळ । कार्मणशरीरोदयात्तत्काययोगेन जातकर्माद्वारा लब्ध्यपर्याप्तपर्यायसहकारिकारणत्रयोविंशतिक बन्घकाले योग्य१५ पंचस्वस्थानेष्वेकतरसत्वाः स्युः । उच्यते सामान्यं समवायश्वाप्येकैकत्र समाप्तितः । अंतरेणाश्रयं न स्यान्नाशोत्पादिषु को विधिः ॥६५॥ सामान्यं समवायश्च एकैकस्मिन् समाप्तत्वात्तयोरंतरं स्यात् तेन साधारणरूपेण समवायरूपेण स्थिति - वाशोत्पादिद्रव्येषु सामान्यसमवाय प्रमाणाविषयकः । तयोरेकजीवद्रव्यं साधारणत्वस्य समवायत्वस्य च विषयो २० न स्यादित्यर्थः । कुतः ? तयोविशेषरूपेण पृथगवस्थानात् । विधिशब्दः कथं प्रमाणवाचक इति चेत् । सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः । सर्वथेति प्रदुष्यति पुष्यंति स्यादितोहते ||१|| सदेकनित्यवक्तव्याः तद्विपक्षा असदने का नित्यावक्तव्याश्च नयाः स्युः सर्वचेति प्रदुष्यति दुर्णया भवंति । स्यादिति पुष्यंति सुनया भवंति तवागमे । २५ उन दोनोंको त्याग पृथक-पृथक होकर कार्मण शरीरका उदय होनेसे कार्मणकाययोगके द्वारा आहारक होकर लब्ध्यपर्याप्त पर्यायके सहकारि कारण तेईस प्रकृतियोंके बन्धकालमें उसके योग्य पाँच सत्त्वस्थानों में से किसी एककी सत्तावाले होते हैं । कहा भी है Jain Education International सामान्य और समवाय एक-एक व्यक्तिमें ही समाप्त हो जाते हैं । अतः आश्रयके बिना जो द्रव्य नष्ट और उत्पन्न होते हैं उनमें सामान्य और समवाय कैसे रहेंगे । आशय यह है कि एक जीवद्रव्य साधारणत्व और समवायत्वका विषय नहीं हो सकता । क्योंकि दोनों विशेषरूपसे पृथकू रहते हैं । विधि शब्द प्रमाणका वाचक कैसे है ? सत्, एक, नित्य, वक्तव्य और इनके विपक्षरूप असत्, अनेक, अनित्य, अवक्तव्य ये जो नयपक्ष हैं बे सर्वथा रूपमें तो अविदूषित होते हैं अर्थात् दुर्नय होते हैं । और स्यात् पदपूर्वक सुनय होते हैं । स्वयंभू स्तोत्र १०१ श्लोक 1 नयविषयत्वात् । इह नयविषये तेषां सदसदादीनां प्रमाणनय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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