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________________ ७८९ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका नाममुं युतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानो आहारकद्वयमं कूडिकोळुत्तं विरलदुवु मप्रमतसंयतं देवगतियुतमागि कटुव युगपत्तीहारयुतैकत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमक्कुं। ३१ । सु । एक प्रकृतिबंधस्थानं अगतियतं आवगतियुतबंधस्थानमल्लेके दोडे अपूर्वकरणषष्ठभागपथ्यंतं गतियुतबंध. स्थानंगळप्पुवु। तद्गुणस्थानचरमभागमादियागि सूक्ष्मसांपराय चरमसमयपय्यंतं बंधमागुत्तिई यशस्कोत्तिनामप्रकृतियों दे गतियुतमल्लद बंधस्थानमकुं १ । उक्तात्थं समुच्चय संदृष्टि :-- ५ | तीर्थ- आहा उद्यो ती आहा| तिथ्य बि ति तिच पं बिति । च म तिऱ्या तीत्थं २५ | पए | अप बि ति चम अनंतरमी बंधस्थानंगळ्गे संभविसुव भंगंगळं पेळदपरु : संठाणे संघडणे विहायजुम्मे य चरिमछज्जुम्मे । अविरुद्धक्कदरादो बंधट्ठाणेसु भंगा हु ॥५३२॥ संस्थाने संहनने विहायो युग्मे च चरमषड्युग्मे । अविरुद्धकतरतो बंधस्थानेषु भंगाः खलु॥ १० गतित्रिंशत्कं स्यात् । तच्चाप्रमत्तो बध्नाति ३० प वि ति च प म दे। पुनः देवगतितीर्थयुतकान्नत्रिंशत्कं आहारकद्वययुतं अप्रमत्तबंधयोग्यं एकत्रिंशत्कं स्यात् ३१ सु। एककमगति अपूर्वकरणषष्ठभागादासूक्ष्मसांपरायांता बध्नति ॥५३ १॥ एवं नामबंधस्थानान्युक्त्वा तद्भगानाहअयशःकीर्ति, सुभग-दुर्भगमें-से कोई एक प्रकृति सहित स्थान होता है। देवगति सहित उनतीसके स्थानमें तीर्थंकर प्रकृति घटाकर आहारकद्विक मिलानेसे देवगति सहित तीसका १५ स्थान होता है। इसे अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती बांधता है। इस तरह तीस प्रकृतिरूप छह स्थान हुए। देवगति तीर्थकर सहित उनतीसके स्थानमें आहारकद्विक मिलानेपर अप्रमत्तके बन्धयोग्य देवगति सहित इकतीसका स्थान होता है। इस प्रकार अपूर्वकरणके छठे भाग पर्यन्त बन्धयोग्य इकतीस प्रकृतिरूप एक स्थान है। एक यश कीर्ति प्रकृतिरूप एक स्थान है। २० उसे अपूर्वकरणके सातवें भागसे सूक्ष्म साम्पराय पर्यन्त जीव बाँधते हैं। ऐसे नामकर्मके बन्धस्थान कहे ।।५३०-५३१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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