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________________ ७८८ गो० कर्मकाण्डे स्थानदोळु स्थिरास्थिर शुभाशुभ सुभगदुदर्भगादेयानादेययशस्कीय॑यशस्कोति संस्थानषट्क संहननषट्कसुस्वरदुःस्वर प्रशस्ताप्रशस्त विहायोगतिगळोकतरबंधमक्कुमदी विशेषमरियल्पडुगुं । ___अपर्याप्तपंचेंद्रियजातियुतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानदोळु तिर्यग्गतितिर्यग्गत्यानुपूर्व्यमं कळेदु मनुष्यगति मनुष्यगत्यातृपूर्व्यमं कूडुत्तं विरलु पर्याप्तमनुष्यगतियुतैकान्नत्रिंशत्प्रकृति५ बंधस्थानमक्कुं। मत्तं नवध्रुवप्रकृतिगळं त्रसबादर-पर्याप्त-प्रत्येकशरीरंगळं स्थिरास्थिरदोळेकतरk शुभाशुभदोळेकतरम सुभगमुमादेवमुं यशस्कोत्ययशस्कोतिगळोळेकतरमुं देवगतियं पंचेंद्रियजातियु वैक्रियिकशरीरमुं प्रथमसंस्थानमुं देवगत्यानुपूर्व्यमुं वैक्रियिकांगोपांग, सुस्वरमुं प्रशस्तविहायोगतियमुच्छ्वासमुं परघातमुं तीर्थकर मुमेंबी देवगतियुतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमक्कुमदं मनुष्या. संयतादिचतुग्गुणस्थानत्तिगळु यथायोग्यरु कटुवरु । २९ ॥ प। बि । ति । च । प । म । दे । अपर्याप्त द्वौद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियपंचेंद्रियजातियुतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानंगळोद्योत. नाममं कूडिकोलुत्तं विरलापर्याप्तद्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियपंचेंद्रिययतत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानंगळ यथाक्रमदिनप्पुवु । मनुष्यगतियुतकान्नत्रिशत्प्रकृतिबंधस्थानदोळु तीर्थमं कूडिकोळुत्तं विरलु देवनारकासंयतसम्यग्दृष्टिगछु कटुव मनुष्यगतियुत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमक्कुमल्लिस्थिरास्थिर शुभाशुभ यशस्को|यशकोत्तिसुभगदुर्भगंगळोळेकतरयतमें बी विशेषमरियल्पडुगुं। मत्तं देवगति१५ यतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानदोळु तीर्थकर नाममं कळेदाहारकद्वयमं कूडिकोळळुत्तिरलु देवगति युत्रिशत्प्रकृतिबंधस्थानमक्कुमदनप्रमतसंयतन कटुगुं । ३०।प।बि । ति । च । प।म। दे। सुरगतियुतं एकत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानं देवगतियुतबंधस्थानमेयककुमदे ते दोडे देवगतियं तीर्थकरपूर्व्यनिक्षेपे तत्पर्याप्तमनुष्यगतियुतं । पुनः नवध्र वत्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरास्थिरैकतरशुभाशुभकतरसुभगादेययशस्कीय॑यशस्कीत्यैकतरदेवगतिपंचेंद्रियवैक्रियिकशरीरप्रथमसंस्थानदेवगत्यानुपूर्व्यवक्रियिकांगोपांगसुस्वरप्रशस्तविहायोगत्युच्छ्वासपरघाततीर्थकरं तद्देवगतियुतं मनुष्यासंयतादिवतुर्गुणस्थानवतिनो बध्नति प २९ वि ति च प म दे । एतेष्वाद्यानि चत्वार्युद्योतयुतानि पर्याप्तद्वींद्रियत्रींद्रिय चतुरिंद्रियपंचेंद्रिययुतं त्रिंशत्कानि । मनुष्यगत्येकान्नत्रिशत्कं तीर्थयुतं देवनारकासंयतबंधयोग्यं मनुष्यगतित्रिंशत्कं स्यात् । तच्च स्थिरास्थिरशुभाशुभयशस्कोर्त्ययशस्कोतिसुभगदुर्भगकतरयुतमिति विशेषः । पुनः देवगत्येकान्नत्रिंशत्कं तीर्थमपनीयाहारकद्वययुतं देव त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर-अस्थिरमें से एक, शुभ-अशुभमें से एक, सुभग, आदेय, २५ यशःकीर्ति-अयशकीर्तिमें से एक, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, प्रथम संस्थान, देवगत्यानपूर्वी, वैक्रियिक अंगोपांग, सुस्वर, प्रशस्तविहायोगति, उच्छ्वास, परघात, तीर्थकर, इनरूप देवगति तीर्थकर सहित उनतीसका स्थान होता है। इसका बन्ध असंयत आदि चार गुणस्थानवर्ती मनुष्य ही करता है । इस प्रकार उनतीस प्रकृतिरूप छह स्थान कहे। दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्तयुत उनतीसके स्थानमें उद्योत प्रकृति ३५ तिलानेपर दोइन्द्रिय सहित तीसका, तेइन्द्रिय सहित तीसका, चौइन्द्रिय सहित तीसका और पंचेन्द्रिय सहित तीसका बन्धस्थान होता है। पर्याप्त मनुष्य सहित उनतीस के स्थानमें तीर्थकर प्रकृति मिलानेपर असंयत सम्यग्दृष्टी देव व नारकीके बन्धयोग्य मनुष्यगति सहित तोसका बन्धस्थान होता है। इतना विशेष है कि यहाँ स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, यशःकीर्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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