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________________ ७८७ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका वैक्रियिकशरीरांगोपांग दुःस्वराप्रशस्तविहायोगत्युच्छ्वास परघातगळेदी नरकगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिबंधस्थानमक्कु । २८ । दे । नि॥ अल्लिद मेलण एकानत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमु त्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमुमबी द्वे येरडु स्थानंगळु पर्याप्तक बिति च प मनुष्यदेवगतिसंयुते पर्याप्तक द्वींद्रिय त्रौंद्रियचतुरिंद्रिय पंचेंद्रियजातिमनुष्यगतिदेवगतियुतबंधस्थानंगळप्पुवुदे ते दोडे नर्वध्र वबंधप्रकृतिगळु त्रसबादर- ५ पर्याप्त प्रत्येकशरीरं स्थिरास्थिरंगळोळेकतरमुं शुभाशुभंगळोळे कतर मुं दुर्भगमुमनादेय, यशस्कीय॑यशस्कीतिगळोळेकतर{ तिर्यग्गतियु द्वींद्रियजातियु औदारिकशरीरमु हुंडसंस्थानमुं तिर्यग्गत्यानुपूर्व्यमुमसंप्राप्तसृपाटिकासंहननमुमौदारिकांगोपांगमु दुःस्वरमुमप्रशस्तविहायोगतियुमुच्छ्वासमं परघातमुम बिवु पर्याप्तद्वींद्रिययुतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमक्कुमल्लि द्वौद्रियजातिनाममं कळेदु त्रींद्रियजातियं कूडुत्तं विरलदु पर्याप्तत्रोंद्रियजातिनामयुतैकान्नत्रिंशत्प्रकृति- १० बंधस्थानमक्कुमल्लि त्रींद्रियजातिनाममं कळेदु चतुरिंद्रियजातिनाममं कूडुत्तं विरलदु पर्याप्त. चतुरिंद्रियजातिनामकर्मयुतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमक्कुमल्लि चतुरिंद्रियजातिनाममं कळेदु पंचेंद्रियजातिनाममं कूडुत्तं विरलदु पर्याप्तपंचेंद्रियजातियुतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमक्कुमा एकान्नत्रिंशत्कं च नवध्र वत्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरास्थिरैकतरशुभाशुभै कतरदुर्भगानादेययशस्कीय॑यशस्कीत्यैकतरतिर्यग्गतिद्वींद्रियौदारिकशरीरहुंडसंस्थानतिर्यग्गत्यानु सिंप्राप्तासृपाटिकोदारिकांगोपांगदुःस्वराप्रशस्त - १५ विहायोगत्युच्छ्वासपरघातं तस्य द्वींद्रिययुतं । तत्र द्वीद्रियमपनीय त्रींद्रिये निक्षिप्ते तत्पर्याप्तत्रींद्रिययुतं । पुनः त्रींद्रियमपनीय चतुरिद्रिये निक्षिप्ते तत्पर्याप्त चतुरिंद्रिययुतं । पुनः चतुरिंद्रियमपनीय पंचेंद्रिये निक्षिप्ते तत्पर्याप्तपंचेंद्रिययुतं । अत्र स्थिरास्थिरशुभाशुभसुभगदुर्भगादेयानादेययशस्कीय॑यशस्कोतिषट्संस्थानषट्संहननसुस्वरदुःस्वरप्रशस्ताप्रशस्तविहायोगत्येकतरमिति विशेषः । तत्र तिर्यग्गतितदानुपूर्ये अपनीय मनुष्यगतितदानुनरकगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, हुण्डक संस्थान, नरकगत्यानुपूर्वी, वक्रियिक २, अंगोपांग, दुःस्वर, अप्रशस्त विहायोगति, उच्छवास, परघात ये नरकगति सहित अट्ठाईसका बन्धस्थान होता है। ये दो अट्राईसके बन्धस्थान हए। नौ ध्रवबन्धी, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिरमें-से एक, शुभ-अशुभमें-से एक, दुर्भग, अनादेय, यशःकीर्ति-अयशःकीति में से एक, तिर्यंचगति, दोइन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, हुण्डक संस्थान, तियं चानुपूर्वी, सृपाटिका संहनन, औदारिक अंगोपांग, दुःस्वर, अप्रशस्त विहायोगति, उच्छ्वास, २५ परघात, ये दो इन्द्रिय पर्याप्तयुत उनतीसका स्थान है। ___इनमें-से दोइन्द्रियजाति घटाकर तेइन्द्रिय जाति मिलानेसे तेइन्द्रिय पर्याप्त सहित उनतीसका स्थान होता है। इनमें से तेइन्द्रिय जाति घटाकर चौइन्द्रिय जाति मिलानेपर चौइन्द्रिय पर्याप्त सहित उनतीसका स्थान होता है। उनमें से चौइन्द्रिय जाति घटाकर पंचेन्द्रिय जाति मिलानेपर पंचेन्द्रिय पर्याप्त सहित उनतीसका स्थान होता है। किन्तु यहाँ ३० स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय, यश-कीर्ति-अयशःकीर्ति, छह संस्थान, छह संहनन, सुस्वर-दुःस्वर, प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति इनमें से कोई एक-एक प्रकृति ग्रहण करना। इन उनतीसमें-से तिर्यंचगति और तियंचानुपूर्वी घटाकर मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी मिलानेपर पर्याप्त मनुष्य सहित उनतीसका स्थान होता है । पुनः नौ ध्रुवबन्धी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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