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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२५५ पडिसमयधणेवि पदं पचयं पभवं च होइ तेरिच्छे । अणुकड्डिपदं सव्वद्धाणस्स य संखभागो दु ॥९०५॥ प्रतिसमयधने पि पदं प्रचयं प्रभवन भति तिरश्चि । अनुकृष्टिपदं सर्वाध्वानस्य च संख्यभागस्तु॥ प्रतिसमयधनदोळं पदमुं प्रचय, प्रभवमुं तिर्यग्रूपदोळा माधुत्तरगच्छेगळक्कुम बुदत्थं । ५ तु मत्ते आ तिर्यगनुकृष्टि गच्छे साध्वानद संख्यातेकभागमक्कु । मदक्के संदृष्टि |१६| नाल्कु रूपु लब्धमक्कुं। ४ ॥ इंतनुकृष्टिपदं ज्ञातमागुत्तं विरलु : अणुकड्डिपदेण हिदे पचये पचयो दु होइ तेरिच्छे । पचयधणूणं दव्वं सगपदभजिदं हवे आदी ॥९०६॥ अनुकृष्टिपदेन हृते प्रचये प्रचयस्तु भवेत्तिरश्चि । प्रचयधनोनं द्रव्यं स्वकपदभक्तं भवेदादिः॥, ऊर्ध्वचयमननुकृष्टिपददिदं भागिसुत्तं विरलु अनुकृष्टिप्रचयमक्कु ४ मी प्रचयमं मुन्निनंते ० व्येकपद ४द्धं ४ घ्नचयमं माडि ३ । १ मत्तरिवं गुणो गच्छ ३।१।४। उत्तरघनमिद ६ । चयधनमक्कुमंतु चयधनमागुत्तं विरलु चयधनहीनं द्रव्यं १६२ । शेषमिदु १५६ । यिदं पदभजिदे १५६ । अपि पुनः अनुकृष्टेः प्रतिसमयधनानयने तद्गच्छचयादयः तिर्यगेव स्युः । तत्र गच्छः सर्वाध्यानस्य संख्यातकभागोंकसंदृष्टया १६ चतुरंकः ४॥९०५॥ अनुकृष्टिपदेनोवंचये भक्ते तत्प्रचयः स्यात् ४ ततः व्यकपदा ४ र्द्ध ४ हनचयः ३ । १ गुणो गच्छ २० अनुकृष्टिका प्रतिसमय धन लाने के लिए अनुकृष्टिका गच्छ आदि सब तिर्यक् रूप ही है। अर्थात् पहले समय सम्बन्धी परिणाम जहाँ लिखे हैं उसीके बराबरमें पहले समयसम्बन्धी अनुकृष्टिके खण्डोंके परिणाम लिखना चाहिए। इसी प्रकार सब समयोंकी तिर्यक् रचना करना चाहिए। उनमें से अनुकृष्टिका गच्छ ऊर्ध्वगच्छके संख्यातवें भाग है। अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा ऊर्ध्व गच्छ सोलह है। उसमें संख्यातके चिह्न चारसे भाग देनेपर अनुकृष्टिका गच्छ चार होता है ।।९०५॥ अनुकृष्टिके गन्छका भाग ऊर्ध्व चयमें देनेपर जो प्रमाण हो उसे अनुकृष्टिका चय जानना। सो अनुकृष्टिके गच्छ चारका भाग ऊर्वचय चारमें देनेपर एक आया। वही अनुकृष्टि का चय है । तथा करणसूत्रके अनुसार एक कम गच्छ तीनका आधा डेढ़को चय । एकसे गुणा करनेपर भी डेढ़ रहा। उसे गच्छसे गुणा करनेपर छह हुए। यह अनुकृष्टिमें चयधन जानना । सो प्रथम समय सम्बन्धी परिणाम एक सौ बासठ है। यही प्रथम समयसम्बन्धी अनुकृष्टिका सर्वधन है। उसमें चयधन छह घटानेपर एक सौ छप्पन रहे । उसमें क-१५८ For Private & Personal Use Only r www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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