SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 626
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२५४ गो० कर्मकाण्ड पचयधणस्साणयणे पचयप्पभवं तु पचयमेव हवे । रूऊण पदं तु पदं सव्वत्थ वि होइ णियमेण ॥९०४॥ प्रचयधनस्यानयने प्रवयः प्रभवस्तु प्रचय एव भवेत् । रूपोनपदंतु पदं सर्वत्रापि भवति नियमेन ॥ प्रचयधनमतप्पल्लि घोल्लेडेखोळं प्रचयमुं प्रभवमुं प्रच यमेयककुं। तु मते रूपोनपदमे ४।४।४ ४।४ ४।उ आ पदमकुं नियमदिदं । आ४ । उ ४ । ग १५ । एकैदोडे प्रयमस्य हानिर्वा नास्ति वृद्धिा नास्ति येंदु प्रथमदोळ प्रचमिल्लप्पुरिदं । पदमेगेण विहीणं दुभाजिदं उत्तरेण संगुणिदं। पभवजुदं पदगुणिदं पदगणिदं होइ सव्वत्थ ॥ एंदु । पद १५ मेगेण विहीणं १४ दुभाजिदं १४ । उत्तरेण संगुणिदं १४ । ४ । पभवजुदं २४८ । कूडि ३२ । पदगुणिर्द ३२ । १५ । पदगूणिदं होइ सम्वत्थ १० एंदु लब्धं नानूरे भत्तक्कुं। ४८०॥ अनंतरमनुकृष्टि प्रथमखंडप्रमाणमं पेळ्दपरु : प्रचयधनस्यानयने सर्वत्रापि प्रचयप्रभवो तु प्रचय एव स्यात् । गच्छस्तु प्रथमे प्रयाभावाद्रूपोनतत्पदमेव स्यान्नियमेन । आ४ । उ ४ । ग १५ । पद १५ । मेगणविहीणं १४ दुभाजिदं १४ उत्तरेण संगणिदं १४ । ४ । पभवजुदं ३२ पदगुणिदं ३२ । १५ पदगुणिदं होदि सव्वत्थेति लब्धमशोत्यप्रचतुःशतानि ४८० १५ ॥९०४।। अयानुकृष्टिप्रथमखंडप्रमाणमाह प्रचयधन लानेके लिए विधान कहते हैं-जितनी-जितनी वृद्धि होती है उसे प्रचय कहते हैं। और जो आदिमें होता है उसे प्रभव कहते हैं। ये दोनों यहाँ प्रचयके जोडका जो प्रमाण है उतना जानना । प्रथम स्थानमें तो चयका अभाव है। अतः यहाँ गच्छका प्रमाण विवक्षित गच्छके प्रमाणसे एक कम जानना । यहाँ ऊर्ध्व रचनामें चयका प्रमाण चार २० है । अतः आदि चार और उत्तर चार और गच्छके प्रमाण सोलहमें एक घटानेपर गच्छ पन्द्रह रहा । सो करणसूत्रके अनुसार एक हीन पदको दोसे भाग दो, चयसे गुणा करो, और प्रभव अर्थात् आदिको मिलाकर गच्छसे गुणा करो तो गच्छका जोड़ होता है। यह करणसूत्रका अर्थ है। सो यहाँ गच्छ पन्द्रह में एक घटानेपर चौदह रहे। उसमें दोका भाग देनेपर सात रहे। उसमें चय चारसे गुणा करनेपर अठाईस हुए। उसमें आदि चार मिलानेपर बत्तीस हुए। २५ उसे गच्छ पन्द्रहसे गुणा करनेपर चार सौ अस्सी हुए । यही चयधनका प्रमाण है ।।९०४|| आगे अनुकृष्टि (नीचे और ऊपरके समयोंमें समानता ) के प्रथम खण्डका प्रमाण कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy