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________________ ९६८ गो० कर्मकाण्डे तित्थाहाराणुभयं सव्वं तित्यं ण मिच्छगादितिये। तस्सत्तकम्मियाणं तग्गुणठाणं ण संभवइ ॥ तोहाराणामुभयं सव्वं तीत्थं न मिथ्यादृष्टित्रितये। तत्सत्वकर्मणां तद्गुणस्थानं न संभवति ॥ तोहारकोभयसत्वयुतस्थानं मिथ्यादृष्टियोळु सत्वमिल्ल । तोत्थंयुतस्थानमुमाहारकयुतसत्वस्थानमुं नानामिथ्यावृष्टियोळ संभविसुगुं । सासादननोळ नानाजीवापेक्षेयिंदमुमाहारक, तोत्थसत्वस्थानंगळं संभविसंवु। मिश्रगुणस्थानदोळ तोत्ययुतसत्वस्थानं संभविसदु । आहारयुतस्थानं संभविसुगुमेके दोडे तत्सत्वकम्मरुगळप्प जोवंगळ्गे तद्गुणस्थानंगळ संभविसुववल्लेके. बोर्ड तीर्त्याहारोभयसत्वयुतनोळु मिथ्यात्वकर्मोदयमिल्ल । तोर्थ, मेणाहारकसत्वमुमुळ्ळ १. जीवनोळनंतानुबंधिगुदयमिल्ल । तीत्यसत्वमुळनोळ सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृत्युदयमिल्लप्पुरिदं ॥ अनंतरं चतुर्गतिविवक्षितमागि गुणस्थानंगळोळ नामकर्मसत्वस्थानंगळं योजिसिदपरः सुरणरसम्मे पढमो सासणहीणेसु होदि बाणउदी । सुरसम्मे परणारयसम्मे मिच्छे य इगिणद्धी ॥६२०॥ सुरनरसम्यग्दृष्टौ प्रथम सासादनहीनेषु भवति द्वानवतिः। सुरसम्यग्दृष्टो नरनारकसम्यग्दृष्टौ १५ मिथ्यादृष्टौ चैकनवतिः॥ -तीहारकयोरुभयेन यतं सच्चस्थान मिथ्यादष्टौ नास्ति । तीर्थयतमाहारकद्वययतं च नानाजीवापेक्षयास्ति । सासादने नानाजीवापेक्षयाप्याहारकतीर्थयुतानि न सन्ति । मिश्रगुणस्थाने तीर्थयुतं नाहारयुतं चास्ति । तत्र कारणमाह । तत्तत्कर्मसत्त्वजीवानां तत्तद्गुणस्थानं न सम्भवति। कुतः ? तीर्याहारोभयसत्वे मिथ्या त्वस्य तीर्थाहारयोरन्यतरसत्त्वेऽनंतानुबन्धिनां तीर्थसत्त्वे सम्यग्मिथ्यात्वस्य चानुदयात् । १। अथ चतुर्गति२० विवक्षया गुणस्थानेषु नानासत्त्वस्थानानि योजयति ___ मिध्यादृष्टिमें एक जीवकी अपेक्षा तीर्थकर और आहारकद्विक सहित स्थान नहीं है । एक मिथ्यादृष्टि जीवके या तो तीथंकरका ही सत्त्व होता है या आहारकद्विकका ही सत्त्व होता है। नाना जीवोंकी अपेक्षा तो दोनोंका सत्त्व होता है। सासादनमें नाना जीवोंकी अपेक्षा भी आहारक और तीथंकर सहित सत्त्वस्थान नहीं है। मिश्र गुणस्थानमें तीर्थकर २५ सहित सत्वस्थान है, आहारक सहित नहीं है। इसका कारण यह है कि जिन जीवोंके इन कोंकी सत्ता होती है वे जीव इन गुणस्थानों में नहीं जाते । अर्थात् तीर्थंकर आहारकद्विककी सत्ता जिसके हैं उसके मिथ्यात्वका उदय नहीं होता। तीर्थकर या आहारकद्विकमें-से एकका भी सत्त्व होते हुए मिथ्यात्वरहित अनन्तानुबन्धीका उदय नहीं होता। तीर्थंकरकी सत्ता रहते हुए सम्यग्मिथ्यात्वका उदय नहीं होता ।।६१९।। ___आगे चार गतिकी विवक्षा करके गुणस्थानों में नामकर्मके सत्त्वस्थानोंकी योजना करते हैं१. केवल० अदु कारणदि सासादननोळ नानाजीवैकजीवापेक्षेगळिंदमुं सत्वमिल्ल बुदर्थ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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