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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
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सुरसम्यग्दृष्टियोळं मनुष्यासंयतादिसम्यग्दृष्टिगळोळं त्रिनवतिसत्वस्थानं संभविसुगुं । सासादनगुणस्थानरहितमाद चतुर्गतिजरोळं द्वानवतिसत्वस्थानं संभविसुगुं । सुरसम्यग्दृष्टियोळ मनुष्यनारकसम्यग्दृष्टियोळं मिथ्यादृष्टिगळोळमेक नव तिसत्वस्थानं संभविसुगुं ।
उदीचदुग्गदम्मि य तेरस खवगोत्ति तिरियणरमिच्छे | अडचसीदी सत्ता तिरिक्खमिच्छम्मि बासीदी ॥ ६२१ ॥
नवतिचतुर्गतिजेषु च त्रयोदश क्षपकपर्यंतं तिर्य्यग्नरमिथ्यादृष्टावष्टचतुरशीतिसत्त्वे तिर्य्यग्मिथ्यादृष्टौ द्वघशीतिः ॥
चतुग्र्गतिजरोलं मनुष्यरोत्रयोदेश क्षपकानिवृत्तिकरणपध्यंतं सर्व्वत्र नवतिसत्त्वस्थानं संभविसु । तिग्मनुष्यमिध्यादृष्टिगळोळे अष्टाशीतिसत्त्वस्थानमुं चतुरशीतिसत्त्वस्थानमुं संभविसुगुर्म' ते 'बोर्ड 'सपदे उप्पण्णट्ठाणेवि' एंदु संभवमंटपुर्दारदं । तिर्य्यग्मिथ्यादृष्टिजीवनोळे १० द्वयशीतिसस्वस्थानं संभविसुगुमेकें दोर्ड मनुष्यद्विकमुद्वेल्लनमं माडुव जीवंगळु तेजोवायुकायिकंगळप्पुदरिना जीवंगळगे तिर्य्यग्गतियोळल्लदन्यगतियोळु जननमिल्लप्पुदरिदं ।
सुरसम्यग्दृष्टी मनुष्यासंयतादिसम्यग्दृष्टौ च त्रिनवतिकं सम्भवति । सासादनवजितचातुर्गतिकेषु द्वानवतिकं । सुरसम्यग्दृष्टौ मनुष्यनारकसम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टी चैकनवतिकं ॥ ६२० ॥
चतुर्गतिकेष्वात्रयोदशक्षपकानिवृत्तिकरणांतं सर्वत्र नवतिकं सम्भवति । तिर्यग्मनुष्य मिथ्यादृष्टावेवाष्टा- १५ शीतिकं चतुरशीतिकं च सपदे उप्पण्णठाणेवीत्युक्तत्वात् । तिर्यग्मिथ्यादृष्टौ द्वयशीतिकं । मनुष्यद्विकोद्वेल्लकतेजोवाय्वोस्तिर्यग्गतेरन्यत्रानुत्पत्तेः ॥ ६२१ ॥
तिरानबेका सत्त्वस्थान देव असंयत सम्यग्दृष्टि और मनुष्य असंयत आदि सम्यग्दृष्टि में होता है । बानबेका सत्त्वस्थान सासादन रहित चारों गतिके जीवों में होता है । इक्यानबेका सत्त्वस्थान देव सम्यग्दृष्टी में और मनुष्य नारकी सम्यग्दृष्टी या मिध्यादृष्टिमें होता है ।। ६२० || २० नब्बेका सत्त्वस्थान चारों गतिके जीवोंमें, क्षपक अनिवृत्तिकरण में जहाँ तेरह प्रकृतियों का क्षय होता है वहाँ तक सर्वत्र होता । अठासी और चौरासीके सत्त्वस्थान तियंच और मनुष्य मिध्यादृष्टि में ही होते हैं। क्योंकि 'सपदे उप्पणठाणेवि' के अनुसार एकेन्द्रिय आदिमें जहाँ देवद्विक आदिकी उद्वेलना होती है वहां भी वैसी सत्ता पायी जाती है और वह जीव मरकर तिर्यच या मनुष्य में जहाँ उत्पन्न होता है वहाँ भी वैसी सत्ता पायी २५ जाती है ।
बयासीका सत्त्वस्थान मिध्यादृष्टि तिर्यंचमें ही होता है क्योंकि मनुष्यद्विककी उद्वेलना तेजकाय वायुकाय में होती है अतः वहाँ बयासीकी सत्ता पायी जाती है। तथा वह मरकर भी तियंचमें ही उत्पन्न होता है, अन्यत्र नहीं, अतः वहाँ भी बयासीकी सत्ता पायी जाती है ॥६२१||
१. नामकम्मं संबंधित्रयोदशप्रकृतयः साधारणचतुर्जात्यादय अनिवृत्तिकरणप्रथमभागे क्षपणायोग्या भवत्यतः तत्प्रथमभागपर्य्यन्तमित्यर्थः । चदुर्गादिमिच्छे चउरो इगिविगळे छप्पि तिष्णि ते उदगे । सिय अत्थि णत्थि सत्तं सपदे उप्पण्णठाणेवि ॥ ते उदुगं तेरिच्छे इत्युक्तत्वात् ॥ ( ताड पंचम पंक्ति ) – मनुष्यनारक |
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