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________________ ९६७ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका अनंतरं सम्यक्त्वादि विराषनावारंगळं पेळ्वपरु : सम्मत्तं देसजमं अणसंजोजणविहिं च उक्कस्सं । पल्लासंखेज्जदिमं वारं पडिवज्जदे जीवो ॥६१८॥ सम्यक्त्वं देशयममनंतानुबंधिविसंयोजनविधि चोत्कृष्टं पल्यासंख्यातैकभागान्धारान्प्रतिपद्यते जीवः॥ प्रथमोपशमसम्यक्त्वमुमं वेदकसम्यक्त्वमुमं देशसंयमुमननंतानुबंधिविसंयोजनविधियुमनुत्कृष्टदि पल्यासंख्यातकभागवारंगळं जोवं पोर्दुगुं। मेले नियमविवं सिद्धियनेय्दुगुं। चत्तारि वारमुवसमसेढिं समरुहदि खविदकम्मंसो । बत्तीसं वाराई संजममुवलहिय णिव्वादि ॥६१९॥ चतुरो वारानुपशमश्रेणिमारोहति क्षपितकमांशः । द्वात्रिंशद्वारान्संयममुपलभ्य निर्वाति ॥ १० उत्कृष्टदिदमुपशमश्रेणियं नाल्कुवारमारोहणं माकुं क्षपितकाशनप्प जीवं मेले नियमविदं क्षपकणियनल्लदेरनु द्वात्रिंशद्वारंगळं संयममनुत्कृष्ट दिवं पोद्दिनियमदिदं मेले निर्वाणमनयदुगुं। तत्कांडकपतनकालोंतमुहर्तः फलं २१ स्थितिः संख्यातसागरत्वात्संख्यातपल्यानि इच्छा ५१। लब्धं प ॥६१७॥ अथ सम्यक्त्वादिविराधनावारानाह प्रथमोपशमसम्यक्त्वं वेदकसम्यक्त्वं देशसंयममनंतानुबन्धिविसंयोजनविधि चोत्कृष्टेन पल्यासंख्यातकभागवारान प्रतिपद्यते जीवः । उपरि नियमेन सियत्येव ॥६१८॥ उपशमश्रेणिमुत्कृष्टेन चतुर्वारानेवारोहति । क्षपितकर्माशो जीवः, उपरि नियमेन क्षपकश्रेणिमेवारोहति । संयममुत्कृष्टेन द्वात्रिंशद्वारान् प्राप्य ततो निर्वात्येव ॥६१९॥ पतनकाल अर्थात् उद्वेलनारूप होनेका काल अन्तर्मुहूर्त है। इसको फलराशि करो। सब २० स्थिति संख्यात सागर प्रमाणको इच्छाराशि करो। फलको इच्छासे गुणा करके प्रमाणका भाग देनेपर पल्यका असंख्यातवाँ भाग लब्धराशिका प्रमाण होता है। यहाँ अन्तर्मुहूर्तमें जितने स्थितिके निषेक उद्वेलनारूप किये उसका ही नाम काण्डक जानना ॥६१७॥ • आगे सम्यक्त्व आदिकी विराधनाके बार कहते हैं कि कितनी बार विराधना २५ होती है प्रथमोपशम सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व, देशसंयम और अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन विधान इन चारको एक जीव उत्कृष्ट रूपसे पल्यके असंख्यातवें भागमें जितने समय होते हैं उतनी बार छोड़कर ग्रहण करता है। उसके पश्चात् नियमसे मोक्ष प्राप्त करता है ।।६१८।। उपशमश्रेणिपर उत्कृष्टसे चार बार ही चढ़ता है। पीछे क्षपितकमांश होकर अर्थात् कर्मोका अंश क्षय करके नियमसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ता है। सकल संयमको उत्कृष्टसे बत्तीस बार ही धारण करता है। पश्चात् मोक्षको प्राप्त करता है॥६१९।। क-१२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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