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________________ ८५८ गो० कर्मकाण्डे पुटुवरप्पुरिदं मूरुं लेश्यगळप्पुवु । आ देवनारकरुगळु क्षायिक सम्यहाष्टगळिल्लि पुट्ट दोडवर्गळ तिर्यगायुष्यमं कटुवुदुमिल्ल । मनुष्यायुष्यमं कट्टि मृतरागि बंदी पंचदशमनुष्यलोक प्रतिबद्धार्याखंडंगळोळु चरमांगरागि पुट्टि घातिकमंगळं केडिसुवरप्पुरिदं । सप्तमपृथ्विय नारकासंयत सम्यग्दृष्टिगळं बंदिल्लि पुट्टरेके दडवर्गा सम्यग्दृष्टि गुणस्थानदोळु मरणमिल्लप्पु. ५ दरिदं । मरणकालदोळु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमं पोद्दि मृतरप्परु मंते सासादन, मिश्रनुमागिई नारकरुं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमने पोद्दि मृतरप्परु। तिय्यंचनिर्वृत्यपर्याप्तासंयतरिगे देवगतियुताष्टाविंशतिस्थानमो दे बंधमप्पुदु । ई तिय्यंचनिवृत्यपर्याप्तरल्लरुगळं. पर्याप्तिथिदं मेले मिथ्यादृष्टिगळं सासादन मिश्रलं असंयतसम्यग्दृष्टिगळं देशसंयतरुगळु मेंब पंचगुणस्थानत्ति गळप्परा मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानपर्यंत षड्लेश्यगळु मप्पुवु । १० देशसंयतरोळु शुभलेश्यात्रयमेयक्कु मो शुभाशुभलेश्यगळु मेकजीवनोळ क्रमदिदं संभविसुगुमो मेणक्रमदिदं संभविसुगुमो येदितु प्रश्नमादोर्ड क्रमदिदं संभविसुगुमदत दोडे असुहाणं वरमझिम अवरंसे किण्हणीळ काउतिये । परिणमदि कमेणप्पा परिहाणीदो किळेसस्स ॥ काऊ णीळ किण्हं परिणमदि किळेसवड्ढिदो अप्पा। एवं किळे सहाणीवड्ढीदो होदि असुहतियं ॥ येदितु कृष्णनीलकपोतमेंब मूरु लेश्यगळ कषायानुभागस्थानोदयानुरंजित काथवाग्मनस्कर्मलक्षणंगळु कृष्णलेश्योत्कृष्टं मोदल्गोंडु संक्लेशहानियिंदं कपोतलेश्याजघन्यपथ्यंतमप्पुववरोळ जोवंक्रमदिदमसंख्यातलोकमात्रषट्स्थानपतित लेश्यास्थानंगळोळ परिणमिसुगुं। मत्तं संक्लेशवृद्धियिदं क्रमदिदं कपोतलेश्याजघन्य मोदल्गोंडुत्कृष्ट कृष्णलेश्यास्थानपयंतमसंख्यात. १५ २० दृष्टयः स्वस्वलेश्याभिरुताद्यते । तेऽपि न सप्तमेपृथ्वीजाः मिथ्यादृष्टित्वे एवैषां मरणात् । ते चोत्पन्नतिर्यगसंयता देवगत्यष्टाविंशतिकं बघ्नंति । पर्याप्तरुपरि देशसंयतांतगुणस्याना भवंति । तत्र असंयतांतं षड्लेश्याः, देशसंयते शुभत्रिलेश्याः । ___ ननु शुभाशुभलेश्यास्वेकजीवः क्रमेण परिणमेदक्रमेण वा ? उच्यते-आत्मा संक्लेशहान्या कृष्णोत्कृष्टादाक सम्यग्दृष्टी अपनी-अपनी लेश्याके साथ मरकर उत्पन्न होते हैं। किन्तु सातवें नरकके नारकी २५ तियच असंयतमें उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि वे मिथ्यादृष्टि अवस्था में ही मरते हैं । वे उत्पन्न हुए असंयत सम्यग्दृष्टी तिथंच देवगति सहित अठाईसका बन्ध करते हैं। पर्याप्ति पूर्ण होनेपर देशसंयत गुणस्थान पर्यन्त होते हैं। उनमें असंयत पर्यन्त छह लेश्या होती हैं और देशसंयतमें तीन शुभलेश्या होती हैं । शंका-शुभ और अशुभ लेश्यामें एक जीव क्रमसे परिणमन करता है या एक साथ ? समाधान-संक्लेशकी हानिसे आत्मा कृष्णलेश्याके उत्कृष्ट अंशसे लेकर कपोत लेश्याके जघन्य अंश तक और संक्लेशकी वृद्धिसे कपोतके जघन्य अंशसे लेकर कृष्णके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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