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________________ ८४० गो० कर्मकाण्डे प्रकृतिस्थानं पोरगागि पंचविंशत्यादिपंचस्थानंगळं पर्याप्तियोळमंत कटुवरु । मनुष्यगतिय मिश्रासंयमि देवगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमनों दने कटुगु मे दोडुवरिम "छण्हं च छिदी सासण सम्मे हवे णियमा" एंदितु मनुष्यद्विकमुं सासादनासंयमियोळे बंधव्यच्छित्तियादुदप्पुदरिदं । मनुष्यासंयतासंयमिगळोळु देवगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमं सामान्यमनुष्यासंयतासंय५ मिगळप्प कर्मभूमिजमनुष्यरूं चरमांगरुगळं भोगभूमिजा संयतासंयमिगळं कटुवरु। देवतियुत तोयंयुतनवविंशति प्रकृतिस्थानमं गर्भावतरण जन्माभिषेककल्याणद्वययुततीर्थकर कुमारसगळं तृतीयभवदोळ तीत्थंकररुगळप्प मनुष्यासंयतरुगळ केवलिद्वय श्रीपादोपांतदोळु षोडशभावनाबलदिदं तोयंकरनामकर्म बंधमं प्रारंभिसिई बद्धनरकायुदे॒वायुष्यरुगळं मत्तं गर्भावतरण कल्याणमुं जन्माभिषेककल्याण, रहितमागि तद्भवदोळे तीर्थकरागल्वेडिई चरमांगरु गळप्प १० तोर्थसत्कर्मासंयतासंयमिगळं कटुवरु । गर्भावतरणकल्याणपुरःसरं नरकगति देवगतिमिदं बरुत्तिई तीर्थसत्कर्मरुगळु विग्रहगतियोळं मिश्रकालदोळं देवगतियुत नवविंशतिस्थानमं कटुवरु । तीर्थसत्कर्मगळप्प नारकदेवासंयतरुगळु स्वायः क्षयमागुतं विरलु तीर्थकरल्लदन्यमनुष्यरल्ल. रप्पुरिदं । देवासंयमिगळु चतुर्गुणस्थानत्तिगळप्परल्लि मिथ्यादृष्टि देवासंयमिगळु पर्याप्त. मिथ्यादृष्टिदेवासंयमिगळे दु निर्वृत्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टि देवासंयमिगळे दुं द्विविधमप्परल्लि १५ भवनत्रयसौधर्मद्वयपर्याप्तमिथ्यादृष्टयसंयमिगळ एकेंद्रियपर्याप्ततिर्यग्गतियुत पंचविंशतिस्थान मुमं आतपोद्योतयुतषड्विंशतिप्रकृतिस्थानमुमं पंचेंद्रियपर्याप्ततियेागतियुतमुं मनुष्यगतियुत गुमप्प नवविंशति प्रकृतिस्थानमुमं तिर्यग्गतियुद्योतयुत मागि त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुमं कटुवरु। सानत्कुविनाष्टाविंशतिकं पञ्चविंशतिकादीनि पंच । पर्याप्तौ तु अशविंशतिकमपि । कर्मभोगमिमिश्रासंयती देवगत्वष्टा विंशतिकमेव नरकतिर्यग्गत्योः सासादने बंधच्छेदात् । विग्रहगतितीर्थकृत् मिश्रतीर्थकृत् गर्भतीर्थकृत् जन्म२० तीर्थकृत् कुमारतीर्थकृत् बद्धदेवनरकायुः प्रारब्धतद्वंघः तत्त्व वरमांगश्च देवगतितीर्थयुतनवविंशतिक, देवः पर्याप्तो मिथ्यादृष्टिः भवनत्रयसोधर्मद्वयजः एकेन्द्रियपर्याप्ततियंगतियतपंचविंशतिकातपोद्योतयतषविंशतिकपंचेन्द्रियपर्याप्ततिर्यग्मनुष्यगतियुतनवविंशतिकतिर्यग्गत्युद्योतयुतत्रिंशत्कानि, सानत्कुमारादिदशकल्पनः मनुष्यसहित छह स्थानोंको बांधते हैं । कर्मभूमिका मनुष्य मिश्र और असंयत गुणस्थानमें देवगति सहित अठाईसका ही बन्ध करता है क्योंकि नरकगति और तियंचगति के बन्धकी व्युच्छित्ति २५ सासादनमें ही हो जाती है। तीर्थकर यदि विग्रहगतिमें हों, या निर्वृत्यपर्याप्त अवस्थामें हों, या गर्भावस्थामें हों, या जन्म अवस्थामें हों या कुमार अवस्थामें हों, या जिसके पूर्व में नरकायु या देवायुका बन्ध हुआ है और पीछे तीर्थंकरके बन्धका प्रारम्भ किया है ऐसा जीव, या तीर्थकरकी सत्ताका धारी चरम शरीरी मनुष्य असंयत गुणस्थानमें देवगति तीर्थकर सहित उनतीसका ३. ही स्थान बाँधता है। देवगतिमें भवनत्रिक और सौधर्म युगलका पर्याप्त मिथ्यादृष्टि देव एकेन्द्रिय पर्याप्त तियंचगति सहित पचीसका या आतप उद्योत सहित छब्बीसका या पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यच या मनुष्यगति सहित उनतीसका या तियंच उद्योत सहित तीसका, इस प्रकार चार स्थानों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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