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________________ ८३९ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सम्मं गेण्हदि पंचमवरलद्धि चरिमम्हि ॥" एंदितो सामग्री विशेष विशिष्ट मनुष्यमिथ्यादृष्टिकरणत्रयस्वरूपपंचम लब्धिपरिणतननिवृत्तिकरणचरमसमयदोळु दर्शनमोहनीयमनुपशमिसि प्रथमोपशमसम्यक्त्वमनसंयतादि चतुर्गुणस्थानंगळोळाउदानुमोदु गुणस्थानदोळु यथायोग्यमप्पुदरोळ स्वीकरिसि कथंचिदनंतानुबंधिकषायोदयदिदं सम्यक्त्वमुमं सम्यक्त्वदेशव्रतमुमं सम्यक्त्वमहासतमुमं कैडिसि सासादनसम्यग्दृष्टयसंयमियक्कु मे दोडनंतानुबंधिकषायक्के दर्शनमोहक्कं तु प्रशस्तोपशम विधानमुंटतदक्किल्लप्पुरिदं प्रशस्तोपशमदिनिरुत्तिनंतानुबंधिकषायोदयमुभयप्रतिबंधियप्पुदरिदं । अंतप्प मनुष्यसासादनासंयमि पंचेंद्रियपर्याप्ततिर्यग्गतियुतमागि नवविंशति प्रकृतिस्थानमुमनुद्योतयुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुमनितु तिर्यग्गतियुतमागि द्विस्थानमनेकटुगुमेकें दोडे मिथ्यादृष्टियोळेकेंद्रियविकलत्रयंगळगे बंधव्युच्छित्तियादुदप्पुदरिदं । मत्तमा मनुष्यसासादनासंयमिमनुष्यगति पर्याप्तयुतनवविंशतिप्रकृतिस्थानमुमं देवगतियुताष्टाविंशति १० प्रकृतिस्थानमुमं कटुगुमी मनुष्यसासादनासंयमिर्ग मरणमादुदादोडे नरकगति पोरगागि मुरु गतिगळोळु पुटुगुमल्लि तिय्यंग्मनुष्यगतिगळोळु पुटुवर्ड "ण हि सासणो अपुण्णे साहारणसुहमगे य तेउदुगे" एंदितिनितुं स्थानंमळोळ पुट्टनप्पुदरिमवं बिटु शेष तिय्यंग्मनुष्य गतिगळोलु पुटुगुमा तिय्यंग्मनुष्यसासादनासंयमिगळ नरकगतियुताष्टाविंशतिस्थानमं "मिच्छदुगे देवचऊ तित्थं ण हि अविरदे अत्थि" एंदितु देवगतियुताष्टाविंशतिस्थानमुमं कट्टरप्पुरिदमा स्थानं पोर- १५ गागि स्वगुणस्थान कालमन्नेवर मनेवरं नवविंशत्यादि द्विस्थानंगळने कटुवरु। मनुष्यतिथ्यंचसासादनासंयमिगळिगे मरगमागि देवगतियोळपुट्टिवरादोडमल्लियुमा नवविंशत्यादि द्विस्थानंगळने कटुवरु । स्वगुणस्थानकालं पोदि बळिक्क मिथ्यादृष्टिगळागि शेषमिश्रकालदोळु अष्टाविंशति करणलब्धिचरमसमये दर्शनमोहमुपशमय्य प्रथमोपशमसम्यक्त्वं तत्सहितदेशवतं तत्सहितमहावतं वा प्राप्य तत्कालांतर्महर्ते एकसमयतः षडावल्यंतेषु कालेब्वेकस्मिन्नवशिष्टेऽनंतानुबंधिनामप्रशस्तोपशांतानामन्यतमोदयेन २० लब्धगुणं हत्वा जातसासादनः एकविकलेंद्रियाणां मिथ्यादृष्टावेव बंधात् पंचेंद्रियपर्याप्ततिर्यग्मनुष्यगतियुतनवविंशतिकोद्योतयुतत्रिंशत्कदेवगतियुताष्टाविंशतिकानि बध्नाति । मरणे तिर्यङ् मनुष्यो देवो वा सासादनकाले नवविंशतिकादिद्वयं, न च नरकगतिदेवगत्यष्टाविंशतिकं । तत्काले परिसमाप्ते मिथ्यादृष्टिभूत्वा शेषमिश्रकाले सहित देशव्रती या महाव्रती हुआ। उसके उपशम सम्यक्त्वके अन्तर्मुहूर्त कालमें एक समयसे लेकर छह आवली काल शेष रहते अनन्तानुबन्धी कषायका अप्रशस्त उपशम हुआ था सो उसमें से किसी एक क्रोधादि कषायका उदय होनेसे प्रथमोपशम सम्यक्त्वका घात करके सासादन गुणस्थानवर्ती हुए मनुष्यके एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियका बन्ध तो मिथ्यादृष्टिमें ही होता है अतः पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंचगति अथवा मनुष्यगति सहित उनतीसका स्थान या उद्योत सहित तीसका स्थान या देवगति सहित अठाईसका स्थान बंधता है। मरनेपर तिर्यंच, या मनष्य या देव जबतक अपर्याप्त दशामें सासादन रहते हैं तबतक तो उनतीस या १० तीस दोका ही बन्ध करते हैं, नरकगति या देवगति सहित अठाईसको नहीं बाँधते । सासादनका काल पूर्ण होनेपर मिथ्यादृष्टि होकर जबतक निवृत्यपर्याप्त रहते हैं तबतक अठाईसके बिना पच्चीस आदि पाँच स्थानोंको बाँधते हैं। और पर्याप्त होनेपर अठाईस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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