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________________ गो० कर्मकाण्डे असंज्ञिसंज्ञिजीवंगळ देवगतियुताष्टाविशतिप्रकृतिस्थानमे के बंधमिल्लेंदु पेवरेर्क दोर्ड "मिच्छ दुगे देवचऊ तित्थं ण हि अविरदे अस्थि एंदिता असंज्ञिसंज्ञितिथ्यंचसासादननोळं देवगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानमुं बंधमिल्ले दितु निश्चइसुबुदु । संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्ततियंचने मिश्र - तिम्यंचा संयमयप्पुरिदं । देवगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानमनोंदने कट्टुगुमेकें दोडे सासादन५ गुणस्थानदोळे तिर्य्यग्गतिगं मनुष्यगतिगं बंधव्युच्छित्तियक्कुर्म' ते 'दोडे "उवरिमछष्णं च छिदी सास सम्मे हवे नियमा” एंदितु पेळल्पट्टुदरिदं । असंयततिय्यंचासंयमियोळु देवगतियुताष्टाविशति प्रकृतिस्थानमोदे बंधमक्कुमेके दोडे 'तिरिये ओघो तित्थाहारूणा' येंदु तोर्त्याहारकद्वयबंधं निषेधिसल्पट्टुपुर्दारदं । मिथ्यादृष्टिमनुष्याऽसंयमियोळु अपर्याप्तमनुष्या संयमिये ढुं पर्याप्तमनुष्यासंयमियेदितु मनुष्य मिथ्यादृष्टयसंयमिगळु द्विविधमप्परल्लि लब्ध्यपर्याप्त मिथ्या१० दृष्टयसंयमिगळु नरकगतिदेवगतियुताटाविशति प्रकृतिस्थानं पोरगाति शेषतिर्य्यग्मनुष्यगतियुत त्रयोविंशत्यादि षट्स्थानंगलं कट्टुवरु । पर्याप्तमनुष्य मिथ्यादृष्टय संयमिगळुमा अटाविंशति प्रकृतिस्थानयुतमागि यथायोग्यं त्रयोविंशत्यादि षट्स्थानंगळं चतुरगं तियुतमागि कट्टुवरु । सासादनमनुष्यासंयमिगळेबवरुगछु “ चदुर्गादिमिच्छो सण्णी पुण्णो गब्भजविसुद्धसागारो । पढमुव १५ ८३८ र्भूत्वा पर्याप्तेरुपरि बध्नाति । संयसंज्ञिनावपि तत्कथं न बघ्नतः ? 'मिच्छदुगे देवचऊ तित्थं नहीति अस्मिन् सासादने तयोरपि तदघटनात् । तिर्यग्मिनोऽसंयतो वा संज्ञिपर्याप्त एव तन्मिश्रे देवगतियुताष्टाविंशतिकमेव 'उवरिमछहं च छिदी सासणसम्मे' इति तिर्यग्मनुष्यगत्योरस्य बंधाभावात् । तदसंयतेऽपि तदेव तिर्यग्जीवे तीर्थाहाराणामबंधात् । मनुष्ये मिथ्यादृष्टी लब्ध्यपर्याप्त नरकगतिदेवगतियुताष्टाविंशतिकवर्जिततिर्यग्मनुष्यगतितत्रयोविंशतिकादीनि षट् । पर्याप्ते चतुर्गतियुतानि तानि षट् चदुर्गादिमिच्छो सण्णीत्यादिसामग्री संपन्नः नरकगति या देवगति सहित अट्ठाईसका बन्ध न करके शरीर पर्याप्तिके पूर्व ही सासादनपनेको छोड़ नियमसे मिध्यादृष्टि होकर पर्याप्त होनेपर ही नरकगति अथवा देवगति सहित अट्ठाईसके स्थानको बाँधता है । २० शंका- संज्ञी और असंज्ञी भी अठाईसके स्थानको क्यों नहीं बाँधते ? समाधान- "मिच्छदुगे देवचऊ तित्थं ण हि' इस आगम वचन के अनुसार सासादन में संज्ञी असंज्ञीके भी अठाईसका बन्ध नहीं होता । २५ मिश्र और असंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच संज्ञी पर्याप्त ही होता है । सो मिश्र में तो देवगति सहित अठाईसको ही बाँधता है। क्योंकि 'उवरिम छण्हं च छिदी' इत्यादि वचनके अनुसार तियंचगति और मनुष्यगति में उसके बन्धका अभाव है । तथा असंयतमें भी वही स्थान बँधता है क्योंकि तिर्यंचके तीर्थंकर और आहारकका बन्ध नहीं होता । मनुष्यगति में मिथ्यादृष्टि लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यके तो नरकगति देवगति सहित अठाईसके बिना तेईस ३० आदि छह स्थानोंका बन्ध होता है । और पर्याप्त मनुष्यके चारों गति सहित छहों स्थान बँधते हैं। तथा 'चदुगतिमिच्छो सण्णी' इत्यादि सामग्री से सम्पन्न जीव करणलब्धि अन्तिम समय में दर्शनमोहका उपशम करके प्रथमोपशम सम्यक्त्वी हुआ या प्रथमोपशम सम्यक्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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