SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५ १० ९०६ गो० कर्मकाण्डे द्वितीयः अल्पतरबंधर्म बुदुमवर विपरीतमक्कुमवें तें बोर्ड त्रिंशत्प्रकृतिस्थानावित्रयोविंशतिपत बहुप्रकृतिगळं कट्टुत्तमल्पप्रकृतिगळं कट्टुवेडयाळ वकुमप्पुरिवं २० : तदियो सणामसिद्धो सव्वे अविरुद्ध ठाणबंधभवा । ताणुपत्ति कमसो भंगेण समं तु बोच्छामि ॥५६४॥ तृतीयः स्वनामसिद्धः सर्व्वेऽविरुद्धस्थानबंधभवाः । तेषामुत्पत्ति क्रमशो भंगेन समं तु वक्ष्यामि ॥ तृतीयं अवस्थितबंधं स्वनामसिद्ध मक्कुमवस्थितरूपबंधनप्पुर्दारद । सर्व्वभुजाकार विबंधगळुमविरुद्धस्थानबंध संभूतंगळप्पुववरुत्पत्तियं क्रर्मादिदं भंगवोडने कूडि तु मर्त्त वक्ष्यामि पेव्वपेनु । अते दोर्ड : भूबादर त्रयोविंशति बध्नन् सर्व्वमेव पंचविशति । बध्नाति मिथ्यादृष्टिरेवं शेषाणामानेतव्यः ॥ पृथ्वी कायिकबादरादिबंधना मकम्मैपदंगळे कचत्वारिंशत्प्रमितंगळोळ मुंनं स्थापिसल्पट्ट त्रयोविशत्यादिस्थानंगळु भंगंगळु बेरसिद्द पवल्लि त्रयोविंशतिप्रकृतिस्थानंगळ पन्नों दु ११ । अष्ट १५ भंगयुत पंचविंशतिगळय्वु ५ । चतुब्भंगयुतंगळमारु ६ एकभंगयुतंगळमारु ६ अन्तु १७ स्थानंगळगं भूवादर तेवीसं बंधतो सव्वमेव पणुवीसं । बंदि मिच्छाइट्ठी एवं सेसाणमाणेज्जो || ५६५ ॥ बहुप्रकृति कबन्धे स्यात् । तु-पुनः द्वितीयः बहुप्रकृतिकं बघ्नतोऽल्पप्रकृतिकबन्धे स्यात् । तृतीयः स्वनामतः सिद्धः स्यात् अवस्थितरूपत्वात् । ते सर्वे भुजाकारादयः अविरुद्धस्थानसंभूता भवन्ति ॥५६३ - ५६४ ॥ तदुत्पत्ति पुनः पुनः क्रमेण भंगैः सह वक्ष्यामि तद्यथा I भूबादराद्येकचत्वारिंशन्नामपदयुतस्थानेषु त्रयोविंशतिकान्येकादश । २३ पंचविंशतिकान्यष्टषापंचचतु ११ प्रकृतियोंको बाँधकर थोड़ी प्रकृति बाँधनेपर दूसरा अल्पतर बन्ध होता है। तीसरा अपने नामसे ही सिद्ध है । जितनी प्रकृति पूर्वसमय में बांधी उतनी ही दूसरे समयमें बाँधे तो उसे अवस्थित कहते हैं । ये सब भुजकार आदि अविरुद्ध बन्धस्थान द्वारा होते हैं। आगे उनकी उत्पत्तिको क्रमसे भंगों के साथ कहते हैं ॥५६३–५६४॥ पूर्व में बादर पृथ्वीकायादिक इकतालीस पद कहे थे। उनमें भंगसहित स्थान २५ कहते हैं अपर्याप्त पृथ्वी, आप, तेज, वायु, साधारण ये बादर और सूक्ष्म तथा प्रत्येक वनस्पति, इन एकेन्द्रियके ग्यारह भेदोंके द्वारा तेईसका बन्धस्थान ग्यारह प्रकारका है। उनमें भंग एकएक होनेसे ग्यारह हुए । पचीसके स्थान में बादर पर्याप्त, पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येकके भेदसे पाँच प्रकार हुए। इनमें स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ, यश-अयशके विकल्पसे आठ-आठ भंग पाये जाते हैं । अतः चालीस हुए। तथा पर्याप्त साधारण, बादर और सूक्ष्म, पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, साधारण इन छह में स्थिर और शुभके युगलसे चार-चार भंग होनेसे चौबीस हुए । तथा अपर्याप्त दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी, संज्ञी, पंचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्य इन छहमें अप्रशस्तका ही बन्ध होने से एक-एक ही भंग होता है । अतः उनके छह भंग हुए । ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy