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________________ १३७८ गो० कर्मका गुणहानिप्रथमाविनिषेकानुकृष्टि परमं परमं खंडंगळ गुणहानिचरमनिषेकानुकृष्टि चरमखंडपथ्यंतं निरंतरं विशेषाधिकक्रमंगळप्पुरिवं स्थानविकल्प संख्यायदंविसदृशमक्कुं। शक्त्यपेक्षेयिदं स्वस्वाधस्तनोत्कृष्टस्थानशक्तियं नोडलु स्वस्वोपरितनजघन्यस्थानमनंतगुणितमक्कु-। मितनंतगुणत्वक्के कारणमेने दो पेन्दपर : हेट्ठिमखंडुक्कस्सं उव्वंकं होदि उवरिमजहण्णं । अट्ठक होदि तदोणंतगुणं उवरिमजहणं ॥९५९॥ अधस्तनखंडोत्कृष्टमुर्वको भवेदुपरितनजघन्यमष्टांको भवेत्ततोऽनंतगुणमुपरितनजघन्यं ॥ स्वस्वजघन्यानुकृष्टिखंडंमोदल्गोंडु स्वस्वोत्कृष्टखंडपय्यंतमेकैकतिर्यग्विशेषदिवमधिक - क्रमंगळप्पुवा विशेषप्रमाणमिदु १५५१ ई चयदोळमसंख्यातलोकमात्र १० षट्स्थानंगळप्पुर्व ते दोडिल्लि त्रैराशिकं माडल्पडुगुम ते दोर्ड : एक्कं खलु अट्ठकं सत्तंकं कंडयं तदोहेट्ठा । रूवहिय कंडयेण य गुणियकमा जाव उठवंक । में दितोंदु षट्स्थानदोठोंदष्टांकमक्क । १ । सप्तांकंगळ कांडक प्रमितंगळप्पुवु २ षडंक पंचांकचतुरंकमुक्कगळु क्रमदिवं रूपाधिककांडकदिवं गुणितक्रमंगळप्पुवु २ । २ । २।२।२ ० ० ० ० ० २।२।२।२।२।२।२।२।२ अष्टांकसहितमागनितुमं कूडिदोडोंदु षट्१५ स्थानदोलिनितु स्थानंगळप्पुवु २।२।२।२।२ यिन्नु त्रैराशिकमं माडल्पडुगु aaaa aaaaa aaaa a चरमं चरम खण्डं गणहानिचरमनिषेकस्य चरमखण्डपर्यन्तं निरन्तरं विशेषाधिकत्वात संख्यया विसदृशं । शक्त्याप्यघस्तनोत्कृष्टस्थानादुपरितनजघन्यस्थानमप्यनन्तगुणं ॥९५८॥ तत्र किं कारणमिति चेदाह यतः कारणात्तिर्यगपरि चाधस्तनाघस्तनखण्डोत्कृष्टाध्यवसायस्थानमः अनन्तभागवृद्ध्यात्मकं भवति । गुणहानिके प्रथमादि निषेकोंका अन्तिम-अन्तिम खण्ड अन्तिम निषेकके अन्तिम २० खण्ड पर्यन्त निरन्तर एक-एक चय अधिक होनेसे संख्यासे समान नहीं है। शक्तिकी अपेक्षा भी नीचेके अन्तिम खण्डके उत्कृष्ट स्थानसे ऊपरके अन्तिम खण्डका जघन्य स्थान भी अनन्त गुणा है ॥९५८॥ इसका कारण क्या है ? यह कहते हैं क्योंकि तिर्यकरूप रचनामें ऊपर-ऊपर लिखे खण्डोंके अपने-अपने नीचे लिखे खण्डों२५ का उत्कृष्ट अध्यवसाय स्थान ऊर्वक अर्थात् अनन्तभागवृद्धिको लिये हुए है और ऊपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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