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________________ १२६६ गो० कर्मकाण्डे सर्वमेलने एवं भवति-१ १ १ १ १ इंतागुत्तं विरलु इंतप्प षट्स्थानंगळा प्रथमसमयप्रथ २ २ २ २ २ मानुकृष्टि खंडदो असंख्यातलोकमात्र गळप्पुवप्पुरिदमनंतगुणित्वं सिद्धमक्कु मदं नोडलु तत्प्रथमसमयद्वितीयानुकृष्टिखंडजघन्यवृद्धिस्थानमष्टांकमप्पुरिंदमनंतगुणमक्कुमेके दोर्ड छट्ठाणाणं आदी अटुंकं होदि चरिममुन्वंकम दितेल्ला प्रथमसमयसमस्तानुकृष्टिखंडंगळजघन्यंगळष्टांकंगळप्पुवु । ५ उत्कृष्टयुवकंगळेयप्पुवितु स्वजघन्यमं नोडलु स्वोत्कृष्ट स्थानंगळुमनंतगुणंगळप्पुवु पूर्व खंडोत्कृष्ट मुमदं नोडलुत्तरखंड जघन्यस्थानमनंतगुणमें ब व्याप्ति एल्लेडेयोळमरियल्पडुगुं। इल्लि प्रयमसमभानुकृष्टि प्रयमखंड सर्वस्थानंगळमसदृशंगळु । द्वितीयसमयप्रथमखंडं मोदलगोंडु द्विचरमखंडपध्यंतमाद सर्वस्यानंगळु प्रथमसमयद्वितीयखंडमोवल्गोंडु चरमखंडपथ्यंतमाद समस्तस्थानंगळोडने समानंगळप्पुवु। इंतु निर्वग्गणकांडकपप्यंतमुपरितनोपरितनखंडविशुद्धिस्थानंगळ २ २ १ ०१ ०१ सर्वसम्मेलने एवं १० इतीदशपदस्थानानि तत्प्रथमसमयानुकृष्टिखण्डे असंख्यातलोकमात्राणि संतीत्यनन्तगणत्वं सिद्धं । ततस्तत्प्रथमसमयद्वितीयानुकृष्टिखण्डजघन्यवृद्धिस्थानं अष्टांकत्वादनन्तगुणं । कुतः ? छट्ठाणाणं आदी अट्टकं होदि चरममन्वंकमिति स्वजघन्यात्स्वोत्कृष्ट स्थानमनन्तगुणं पूर्वखण्डोत्कृष्टादुत्तरखण्डजघन्यस्थानमनन्तगुणमिति ध्याप्तिसद्भावात् । अत्र प्रथमसमयानुकृष्टिप्रथमखण्डसर्वस्थानानि द्वितीयसमयप्रथममादि कृत्वा द्विचरमखण्डपयंतसर्वस्थानानि प्रथमसमयद्वितीयखण्डमादिं कृत्वा चरमखण्डपयंतसमस्तस्थानः सह समानि एवं निर्वर्गणकाण्डक इस प्रकार एक अधिक सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागके घनसे उसीके वर्गको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतने प्रमाण वृद्धियोंके होनेपर एक षट्स्थान पतित वृद्धिरूप स्थान होता है। जीवकाण्डके ज्ञानमार्गणाधिकारमें पर्यायसमास श्रुतज्ञानके वर्णनमें षट्स्थान वृद्धिका जैसा कथन किया है वैसा ही यहाँ भी जानना। ये षट्स्थान उन कषाय स्थानोंमें असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं इससे जघन्यसे उत्कृष्टको असंख्यात गुणा कहा है। प्रथम खण्डके उत्कृष्ट से दूसरे खण्डका जघन्य अनन्तगुणा है क्योंकि षट्वृद्धिस्थानमें अनन्तगुण वृद्धि-जिसका चिह्न आठका अंक है, पीछे ही पीछे होती है तब दूसरे खण्डका जघन्य स्थान होता है। उससे उसीका उत्कृष्ट अनन्तगुणा है। इस प्रकार सब खण्डोंमें अपने-अपने जघन्यसे अपना-अपना उत्कृष्ट अनन्तगुणा है। और उस उत्कृष्टसे उससे २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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