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________________ ६८४ गो० कर्मकाण्डे __प्रकृतीनां मूलप्रकृतिगळ सामान्यबंधस्थानंगळ चत्वारि नाल्कप्पुर्वते दोडष्टविधकम्मबंधस्थानमो दु. सप्तविधकर्मबंधस्थानमोंदु, षड्विधकर्मबंधस्थानमो दु, एकविधकर्मबंधस्थान. मोदितु मूलप्रकृतिगळ बंधस्थानंगळु नाल्कु । संदृष्टि १।६।७।८॥ यिवावाव गुणस्थानदोळे. वोडे अप्रमत्तपर्यंतमष्टविधबंधकरु मिश्रापूर्वानिवृत्तिकरणरायुज्जितसप्तविधकर्मबंधकर ५ सूक्ष्मसापरायनायुर्मोहज्जितषड्विधकर्मबंधकनु उपशांतकषायादित्रितयगुणस्थानत्तिगळु वेद. नोयमेकविधकर्मबंधकरु इंती नाल्कुं बंधस्थानंगळ्गे स्वामिगळप्परु । ई नाल्कुं सामान्यबंधस्थानंगळगुपशमश्रेण्यवतरणोळ भुजाकारबंधस्थानंगळु मूरप्पुवु । संदृष्टि १ | ६ | ७ | उपर्युपरिगुणस्थानारोहणदोळा सामान्यचतुब्बंधस्थानंगळगे अल्पतरबंधविकल्पंगळु मूरप्पुवु । संदृष्टि १८१७ | ६ | मत्तमा सामान्यचतुबंधस्थानंगळगे स्वस्थानदोळवस्थितबंधविकल्पंगळु नाल्कप्पुवु । १० संवृष्टि ! ८ | ७ | ६ | १ | यिल्लियुपशांतकषायंगवतरणदोळ सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानमं पोईदे ८७६|१| अनिवृत्यादिगुणस्थानंगळगनाश्रयणत्वदिमितप्प | १ | १ | भुजाकारबंधमिल्ल । अप्रमत्ता ७८ मूलप्रकृतीनां सामान्यबंधस्थानान्यष्टप्रकृतिकं सप्तप्रकृतिकं षट्प्रकृतिकमेकप्रकृतिकमिति चत्वारि भवंति । १।६ । ७ । ८ । एषां च उपशमश्रेण्यवतरणे भुजाकारबंधास्त्रयः । । १ । ६ ७. उपर्युपरि गुणस्थानारोहणे अल्पतरास्त्रयः । ६. पुनस्तेषामेव स्व३ ७ ८ । इस प्रकार सामान्यसे मूल प्रकृतियोंके बन्ध स्थान आठ, सात, छह और एक प्रकृतिरूप चार हैं। इनमें उपशम श्रेणिसे उतरनेपर भुजकार बन्ध तीन हैं। ऊपर-ऊपर गुणस्थानोंपर आरोहण करनेपर अल्पतर बन्ध तीन हैं। पुनः उन्हींके स्वस्थानमें अवस्थित बन्ध चार हैं। इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है उपशान्त कषायमें एकका बन्ध था। वहाँसे गिरकर सूक्ष्म साम्परायमें आया तो २० छहका बन्ध किया। एक भुजकार बन्ध यह हुआ। सूश्मसाम्परायमें छहका बन्ध था । वहाँसे अनिवृत्तिकरणमें आया तब सातका बन्ध हुआ। एक भुजकार बन्ध यह हुआ। अपूर्वकरणमें सातका बन्ध था, नीचेके गणस्थानमें आठका बन्ध हुआ। यह एक भुजकार बन्ध हुआ। इस प्रकार तीन भुजकार होते हैं । यथा १/६/७ तथा ऊपर-ऊपर गुणस्थान चढ़नेपर अल्पतर बन्ध तीन हैं। आठ कर्मको बाँधकर २५ ६/७/८ सातका बन्ध होनेपर एक अल्पतर होता है। सातसे छहका बन्ध होनेपर एक अल्पतर होता है । छहसे एकका बन्ध होनेपर एक अल्पतर होता है। इस प्रकार तीन अल्पतर हैं। यथा । । अपने ही स्थानमें पहले समय में जितने कर्मोका बन्ध होता है उतने ही कर्मोका बन्ध आगेके समयमें होनेपर अवस्थित बन्ध होता है। - वे बन्ध चार हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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