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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतस्वप्रदीपिका षट् पंचांकंगळं गुणिसिव भाज्यमनेकद्विकर्म गुणिसिदं कदिदं भागिसुत्तं विरला बंद लब्धं पदिनैदु द्विसंयोगंगळ भंगंगळप्पवितु पूर्वोक्तक नदिदं मुंदे मुंदे भाज्य भागहारांकंगलं गुणिसि गुणिसि भागिसुत्तं विरलु त्रिसंयोग चतुःसंयोग पंचसंयोगषसंयोग भंगंगळ ध्रुवगुणकारंगळप्पुवरिदं मिथ्यादृष्टयादिचतुर्गुणस्थानंगळोळं देशसंयत नोळं गुणिसुतं विरलु सर्व प्रत्ययभंगंगळं तम्मल्लि यप्पुवु । संदृष्टि : ध्रुव १६५६० । अध्रुव ६३ । ४ । भंग ४१७३१२० ॥ सासादनंग ध्रु १८२४ । अध्रुव ६३ । ४॥ भंगंगळु ४५९६४८ ।। मिश्रंगे ध्रुव १४४० । अध्रुव ६३ । ४। भंगंगलु ३६२:८० ॥ असंयतंगे ध्रुव १६८० । अध्र ६३ । ४ । भंगंगळ ४२३३६० ॥ देशसंयतंगे ध्रुव १२९६ । अध्रु ३१ । ४। भंग १६०७०४ ॥ प्रमतसंयतंगे ध्रुव २३२ । अध्र ४ । भंगंगळ ९२८ ॥ अप्रमत्तंगे ध्रुव २१६ । अत्र प्रथमहारेण स्वांशे भक्त लब्धं प्रत्येकभंगाः षट् । पुनः परसराहतषट्पंचांशेऽन्योन्याहतकद्वि हारेण १० भक्ते लब्धं द्विसंयोगभंगाः पंचदश । पुनः परस्पराहततत्त्रिशच्चतुरंशे तथाकृत द्विहारेण भक्ते लब्धं त्रिसंयोगा विंशतिः । पुनः तथाकृतविंशत्यधिकशतत्र्यंशे तथाकृसषट्चतुर्हारेण भक्ते लब्धं चतुःसंयोगाः पंचदश । पुनः यदि प्रत्येक, द्विसंयोगी आदि भेद करने हों तो विवक्षितका जो प्रमाण हो उस प्रमाणसे लगाकर एक-एक घटाते हुए एक अंक तक क्रमसे लिखो। ये भाज्य हुए। इनके नीचे एकसे लेकर एक-एक बढ़ाते हुए उस विवक्षित प्रमाण अंक पर्यन्त क्रमसे लिखो। ये भागहार १५ हुए। भाज्यको अंश और भागहारको हार कहते हैं । भिन्न गणितमें जो विधान है उसके द्वारा क्रमसे पूर्व अंशोंके द्वारा अगले अंशोंको और पूर्व हारके द्वारा अगले हारको गुणा करके जो जो अंशोंका प्रमाण हो उसको हार प्रमाणका भाग देनेसे जो प्रमाण आवे उतने-उतने भंग वहाँ जानना । सो मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानोंमें कायबधका प्रमाण छह है। सो छह, पाँच, चार, तीन, दो एक अंश क्रमसे लिखो और उनके नीचे एक, दो, तीन, चार, पाँच, २० छह ये हार लिखो-६५/४|३२|| रा२३/४/५/६] यहाँ प्रथम अंश छहको हार एकका भाग देनेपर छह आये। सो प्रत्येक भंग छह हैं। फिर प्रथम छहसे अगले पाँचको गुणा करनेपर तीस अंश हुए, इसको एकसे अगले दोको गुणा करनेपर दो हारसे भाग दिया पन्द्रह आये। इतने द्विसंयोगी भंग हुए। पुनः तीससे आगेके चारको गुणा करनेपर एक सौ बीस अंश हुए । इनको पूर्व दो से आगे के तीनसे गुणा करनेपर हुए छह हारसे भाग देनेपर बीस आये। इतने त्रिसंयोग भंग हैं। पुनः पूर्व एक सौ २५ बीससे अगले तीनको गुणा करनेपर तीन सौ साठ अंश हुए। उन्हें पूर्व छहसे अगले चारसे गुणा करनेपर हुए हार चौबीसका भाग देनेपर पन्द्रह आये । इतने चतुःसंयोगी भंग हैं । पुनः तीन सौ साठसे आगेके दो को गुणा करनेपर सात सौ बीस अंश हुए। उनको पूर्व चौबीससे आगेके पाँचसे गुणा करनेपर हुए हार एक सौ बीससे भाग देनेपर छह आये। इतने पंचसंयोगी भंग हैं। पुनः सात सौ बीससे आगेके एकको गुणा करनेपर सात सौ बीस अंश हुए। ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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