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________________ गो० कर्मकाण्डे लेश्यापरिणतनागि देवायुष्यमं पल्यासंख्यातेकभागस्थितिबंधयुतम कट्टि मृतनागि बंदु भावनव्यंतरिगरुगळोळ निवृत्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टियक्कुमेके ज्योतिष्करोळ पुट्टने दोडसंजिजीवंगळ - स्कृष्टविंद देवायुष्यक्के स्थितिवंधमं पल्यासंख्यातेकभागमात्रमने कटुगुमदु कारणमागि “तदष्ट भागोऽपरा" एंदितु ज्योतिष्करोळ सर्वजघन्यायुष्यं पल्याष्टमभागदिदं किरिदिल्लप्पुरिदमा ५ ज्योतिष्करोळसंजिजीवंगळ्पुट्टरेबुदु सिद्धमक्कु। मत्तमा भवनत्रयनिवृत्यपर्याप्तरोळ तिर्यगजघन्यभोगभूमिजरुगळं मनुष्यलोकस्थितोत्तममध्यमजघन्यभोगभूमितेजोलेश्यामिथ्यादृष्टि तिर्यग्मनुष्यरुगळु कुमानुष्यरुगळु देवायुष्यमं तद्योग्यमं कट्टि “भवणतिगामी मिच्छा" एंदितु मृतरागि बंदी भवनत्रयनित्यपर्याप्तरप्परागि मिथ्यादृष्टिगळ पंचविंशत्यादिचतुःस्थानंगळु कटुवरु । २५ । ए प २६ । ए प । मा उ । २९ । ति । म । ३० । ति । उ ॥ भवनत्रयनिवृत्यपर्याप्तसासादनरुगळावाव गतियिदं बंदु पुट्टिदवर्गळे दोडे तिर्यग्मनुष्यगतिगळ बद्धदेवायुष्यरुगळप्प प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिजीवंगळनंतानुबंधिकषायोदयदिदं सम्यक्त्वम केडिसि कृष्णादिचतुर्लेश्याजीवंगळु मृतरागि बंदु पुटुवरु । सम्यग्दृष्टिगळारुं भवनत्रयदोळ पुट्टरु । अदु कारणमागि निव्व॒त्यपर्याप्तरोळु सम्यग्दृष्टिगळिल्ल। आ सासादनरुगळु द्विस्थानमने कटुवरु । २९ । ति म । ३० । ति उ । वैमानिकरोळं नित्यपर्याप्तरु पर्याप्तरुगळुमप्परल्लि निव्वृंत्यपर्याप्तरु. १५ गर्भजासंज्ञिनस्तेजोलेश्यस्य भावनव्यंतरयोरेव तद्देवायुरुत्कृष्टस्थितिबंधस्य पत्यासंख्ययभागमात्रत्वात् । तिर्य ग्जघन्यभोगभूमित्रिविधमनुष्यभोगभूमिषण्णवतिकुभोगभूमिजानां तेजोलेश्यानां भवनत्रये, न च सम्यग्दृष्टीनां बद्धदेवायुस्तिर्यग्मनुष्यप्रथमोपशमसम्यग्दृष्टरप्यनंतानुबंध्यन्यतमोदयेन तत्सम्यक्त्वं हत्वैव कृष्णादिचतुर्लेश्याभिस्तत्रोत्पत्तेः । तेन निर्वृत्त्यपर्याप्ता मिथ्यादृष्टयोऽष्टाविंशतिकं विना पंचविंशतिकादीनि चत्वारि बध्नंति २५ ए प२६ एप आ उ २९ ति म ३० ति उ । सासादने द्वे २९ ति म ३० ति उ । सौधर्मद्वयमिथ्यादष्टिष मरकर भवनत्रिक में जन्म लेते हैं। गर्भज असंज्ञी तेजोलेश्यावाले भवनवासी और व्यन्तरोंमें ही जन्म लेते हैं, क्योंकि असंज्ञीके उत्कृष्ट देवायुका स्थितिबन्ध पल्यके असंख्यातवें भाग ही होता है। तियंच सम्बन्धी जघन्य भोगभूमि, जो मानुषोत्तर और स्वयंप्रभाचलके मध्यमें हैं, तीन प्रकारकी मनुष्य भोगभमि, और छियानवे कुभोग भमिमें उत्पन्न हए तेज लेश्यावाले जीव मरकर भवनत्रिकमें जन्म लेते हैं। किन्तु सम्यग्दृष्टि भवनत्रिकमें जन्म नहीं लेते हैं । क्योंकि जिसने देवायुका बन्ध किया है ऐसा प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टी तिर्यंच या मनुष्य भी अनन्तानुबन्धी कषायमें से किसी एकके उदयके द्वारा उस सम्यक्त्वका घात करके ही अर्थात् सासादन सम्यग्दृष्टी होकर कृष्ण आदि चार लेश्याओं के साथ भवनत्रिकमें उत्पन्न होता है। ___ अतः भवनत्रिकके निवृत्यपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि देव अठाईसके बिना पच्चीस आदि चारका बन्ध करते हैं-एकेन्द्रिय पर्याप्त सहित २५ एकेन्द्रिय पर्याप्त आतप उद्यात सहित २६, तियंच या मनुष्यगति सहित २९, तिर्यंचगति उद्योत सहित ३० । सासादन उनतीस-तीस दोको बाँधता है। सौधर्मयुगल सम्बन्धी मिथ्यादृष्टियोंमें मनुष्य अथवा तिर्यग्लोक सम्बन्धी कर्मभूमियां तियंच, चरक, परिव्राजक आदि तथा द्रव्य जिनलिंगी आदि तेजोलेश्याके साथ मरकर उत्पन्न होते हैं। वे निवृत्यपर्याप्तक अवस्था में पच्चीस, छब्बीस, उनतीस और तीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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