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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८६९ कल्पद्वयद शुक्रद्रकमो देयक्कुमल्लियं पद्मलेश्या मध्यमांशमक्कुं । शतारसहस्रार कल्पद्वयद ओंदेशतारेंद्र मक्कुमरोळ पद्मलेश्योत्कृष्टभुं शुक्ललेश्याजघन्यांशमुमक्कु । आनतप्राणतारणाच्युत कल्पचतुष्टयद आनत । प्राणत । पुष्पक। सातक । आरण | अच्युतमें बीया रुमिंद्र कंगळोळं अधोग्रैवेयकद सुदर्शन । अमोघ । सुप्रबुद्ध में ब मूरुभिद्रकंगळोळं मध्यमग्रैवेयकवयशोधर । सुभद्र । सुविशाल ब मूरु मिद्रकंगळोळु उपरिमग्रैवेयद सुमनस । सौमनस । प्रीतिकरमें ब मूरुमद्रकंगळोळं अनुविशविमानंगळ आदित्येंद्रकमो दरोळं अनुत्तरविमानंगळादियागि६ विजयादिश्रेणीबद्धंगळोळं शुक्यलेश्या मध्यमांशमक्कु । अनुत्तरविमानंगळ सर्व्वार्थसिद्धींतकदोळु शुक्ललेश्योत्कृष्टांशमक्कु' । "भवणतियापुण्णगे असुहा" अशुभलेश्यात्रयं भवनत्रयापर्य्याप्त रोळेयक्कुमन्यत्र देवगत्य पर्याप्तरोळं पर्याप्तरोळ तंतम्म लेइयेगळे यक्कु बुदु तात्पर्यं ॥ 1 fing पूर्णा पूर्ण वैमानिक रुगळगे जन्मावा संगळरुवत्त मूरु पटलंगळप्पुवु । भावनरुगळावा- १० संगळु रत्नप्रभावनियखर भागदोळगेछु कोटियुमेप्पत्तेरडु लक्षभवनंगळप्पुवु । व्यंतरवासंगळुमसंख्यातद्वीपसागरंगळोळ यथायोग्यंगळप्पुवु । ज्योतिष्करावासंगळु मनुष्यलोकद सुदर्शनमेवं सासिरद नूरित्तो योजनमं तोलगि चित्रावनियग्रभागदिदं मेलेकुनूरतों भत्तु योजनमं नेगेवु नूरपत्त योजनबाहयदिदं संख्यातपण्णट्ठि प्रतरांगुल भक्तप्रत र प्रमितचंद्रसूर्य्य ग्रहनक्षत्रतारकाविमानंग लोकांपर्यंतमिवी भवनत्रयंगळ निवृत्यपर्याप्तरोळु कर्मभूमि मनुष्यरुं संज्ञिगभंजतिय्यंचरुगळं कृष्णादिचतुर्लेश्या मिथ्यादृष्टिजीवंगळ मृतरागि पोगि भवनत्रयनिर्वृत्यपतरोळ. मिथ्यादृष्टिगळागि पुटुवरु । मत्तमा कर्म्मभूमि गर्भजपर्याप्त पंचेंद्रियासंज्ञि मिथ्यादृष्टिजीवं तेजो ५ शुक्रद्वयस्येकस्मिश्च पद्ममध्यमांशः । शतारद्वयस्यै कस्मिस्तदुत्कृष्टशुक्लजघन्यांशी । आनतचतुष्कस्य षट्सु नवग्रेवेयकानां नवस्वनुदिशानामेकस्मिन्ननुत्तरश्रेणीबद्धेषु च शुक्लमध्यमांशः सर्वार्थसिद्ध । वुत्कृष्टांशः । जन्मावासास्तु वैमानिकानां त्रिषष्टिपटलानि । भावनानां रत्नप्रभावरभागे द्वासप्ततिलक्षाधिकसप्तकोटिभवनानि । व्यंतराणाम- २० संख्यातद्वीपसमुद्राः । ज्योतिष्काणां सुदर्शनमेरुं तिर्यगेकविंशत्येकादशशतयोजनानि मुक्त्वा चित्रात उपरि नवत्यग्र सप्तशतयोजनानि गत्वा दशाग्रशतयोजनबाहुल्येन लोकांतं स्थितानि संख्यातपष्णद्वितरांगुलभक्तजगत्तरमात्र विमानानि । मिथ्यादृष्टीनामुत्पत्तिः कर्मभूमि मनुष्य संज्ञिगर्भजतिरश्चोः कृष्णादिचतुर्लेश्ययोर्भवनत्रये १५ इन्द्रक में लान्तव युगलके दो इन्द्रकों में और शुक्रयुगलके एक इन्द्रक में पद्मलेश्याका मध्यम अंश है । शतारयुगल के एक इन्द्रक में पद्मका उत्कृष्ट और शुक्लका जघन्य अंश है। आनतादि २५ चार स्वर्गोंके छह इन्द्रकोंमें नौ ग्रैवेयकों और अनुदिशोंके एक इन्द्रकमें तथा अनुत्तरोंके श्रेणीबद्ध विमानों में शुक्लका मध्यम अंश है । सर्वार्थसिद्धिमें शुक्लका उत्कृष्ट अंश है । वैमानिक देवोंके जन्मावास -- जहाँ उनका जन्म होता है ऐसे आवास-तरेसठ पटल हैं । भवनवासियों Jain Education International रत्नप्रभा पृथिवीके खर पंक भागमें सात कोटि बहत्तर लाख भवन हैं । व्यन्तरोंके असंख्यात द्वीप समुद्र हैं । ज्योतिषियोंके सुदर्शन मेरुसे तियँक ग्यारह सौ इक्कीस योजन ३० छोड़कर चित्रासे ऊपर सात सौ नब्बे योजन जाकर एक सौ दस योजनकी मोटाईमें लोकपर्यन्त संख्यात पण्णी प्रमाण प्रतरांगुलोंसे भाजित जगत प्रतर प्रमाण विमान है। मिथ्यादृष्टी कर्मभूमिया मनुष्य और संज्ञी गर्भज तिर्यञ्च, जिनके कृष्णादि चार लेश्या होती हैं, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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