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________________ ८६८ गो० कर्मकाण्ड आ ३१ । देति । १ ॥ बादरा निवृत्तिकरणनोळ सूक्ष्मसांपरायनोळ शुक्ललेइयेयोळ, अगतिस्थानमोदे बंधमप्पुदु । १ । केवलं मोहोपशमक्षयजनितयोग प्रवृत्तिलक्षणशुक्ल लेश्य योळ नामबंधमिल्लप्पु दरिंदमुपशांतकषायक्षीणकषाय सयोगभट्टारकरोछु नामबंधमिल्ल | मोगभूमिज - मनुष्यरुगर्ग भोगभूमितिर्य्यगतियोळे पेळल्पट्टुवु । देवगतियो निब्बू स्यपय्यप्तिरु पर्याप्त रु ५ मप्परल्लि निवृत्यर्थ्यातरुगळोळु मिथ्यादृष्टिसासादना संयत गुणस्थानत्रयमक्कुं । पर्याप्तरोळ मिथ्यादृष्टिसासादन मिश्रासंयतगुणस्थानचतुष्टयम क्कुमल्लि “तिन्हं दोण्हं दोहं छण्हं दोन्हं च तेरसहं च । एत्तो य चोद्दसन्हं लेस्सा भवणादि देवाणं ॥" "तेऊ तेऊ तह तेऊ पम्म पम्माय मक्का । सुक्काय परमसुक्का भवणतिया पुण्णगे असुहा ।" ये दितु भवनत्रयदोळ कृष्णादि चतुर्लेश्ये गळक्कुं । सौधम्मैशान कल्पद्वयद ऋतु । विमल । चंद्र । वल्गु । वीर । अरुण । नंदन । १० नलिन । कांचन । रोहित । चंचत् । मरुत् । ऋद्धीश । वैडूर्य्यं । रुचक । रुचिर । अंक । स्फटिक । तपनीय | मेघ । अभ्र । हारिद्र । पद्म । लोहित । वज्र । नंद्यावत्तं । प्रभंकर । पृष्ठक। गज । मित्रक । प्रभाविमान में बेक त्रिशदिद्रकंगळोळु ऋत्विद्रकदोळमदर दिक्चतुष्टय श्रेणिबद्ध विमानंगळोळं प्रकीर्णकविमानंगळोळं समुद्भूत दिविजरुगळ निबग्गं तेजोलेश्याजघन्यांशमेयवकुं । विमल विमानं मोदगडु सानत्कुमार माहेंद्र कल्पद्वयदोळु संभविसुव नंवन । वनमाला । नाग । गरुड । १५ लांगल | बलभद्र । चक्रमें ब सप्तपटलमध्यस्थितंगळप्प सप्तेंद्र कंगळोळु बलभद्रविमानपय्र्यंतं तेजोलेश्यामध्यमांशंगळवु । आ चरमचक्रेंद्रक श्रेणीवद्धंगळोळ तेजोलेश्योत्कृष्टांगमक्कुमा चक्रेंद्रकदो पद्मलेश्याजघन्यांशमक्कुं । ब्रह्मब्रह्मोत्तरकल्पद्वयद अरिष्ट । सुर+समिति । ब्रह्मब्रह्मोत्तर ब नाकुमिद्रकंगळोळं लांतवकापिष्ठद्वयदब्रह्महृदय । लांतवर्म बिद्रकद्वयदोळं शुक्रमहाशुक्र में ब २० ती । अपूर्वकरणे शुक्ललेश्ये तानि चेदं च । बादरानिवृत्तिकरणे सूक्ष्मसांपराये चैककमेव । नोपशांतादिषु नामबंध: । भोगभूमौ तत्तिर्यग्वक्तव्यं । देवगतौ भवनत्रये अपर्याप्त त्र्यशुभलेश्याः । पर्याप्त तेजोजघन्यांशः । पर्याप्ता पर्याप्तवैमानिकेषु सौधर्मद्वयस्या चेंद्र कश्रेणीबद्धप्रकीर्णकेषु तेजोजघन्यांशः । द्वितीयेंद्रकादासनत्कुमारद्वयस्य षष्ठेंद्रकं तेजोमध्यमांशः सप्तमेंद्र कश्रेणीबद्धेषु तदुत्कृष्टपद्मजघन्यांशी ब्रह्मद्वयस्येंद्रकेषु चतुर्षु लांतवद्वयस्य द्वयोः बँधते हैं। अपूर्वकरण में शुक्ल लेश्या ही होती हैं। वहाँ उक्त चारों तथा अन्त में एक इस प्रकार पांचका बन्ध है । बादर अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्म साम्पराय में एकका ही बन्ध है । उपशान्त २५ आदि में नामकर्म के बन्धका अभाव है । भोगभूमि में भोगभूमियाँ तिर्यश्ववत् जानना । देवगति में कहते हैं— देवगति में भवनत्रिक में अपर्याप्तदशामें तीन अशुभ लेश्या होती हैं। पर्याप्तदशा में तेजोलेश्याका जघन्य अंश होता है। पर्याप्त अपर्याप्त वैमानिकोंमें सौधर्मयुगल के प्रथम इन्द्र श्रेणिबद्ध और प्रकीर्णकोंमें तेजोलेश्याका जघन्य अंश होता है । दूसरे इन्द्रकसे ३० सानत्कुमारयुगल के षष्ठम इन्द्रक पर्यन्त तेजोलेश्याका मध्यम अंश है । सप्तम इन्द्र और श्रेणीबद्धोंमें तेजोलेश्याका उत्कृष्ट अंश और पद्मश्याका जघन्य अंश है । ब्रह्मयुगलके चार १. निरवशेष । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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