SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ८७१ गळोळु मिथ्यादृष्टिगळ सासादनलं असंयतसम्यग्दृष्टिगळुमोळरल्लि सौधर्मकल्पद्वयद ऋतु. विमानमावियागि प्रभाविमानावसानमाद मूवत्तों दुं पटलंगळोळिंद्रकश्रेणिबद्धप्रकीर्णकविमानगळोळमादल उत्तरद क्षीणकल्पजदिविजग्गें तेजोलेश्ययेयककुमप्पुरिदं । तत्रत्य नित्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टिजीवंगळोळावावगतिळिदं बंदु पुटुवरे बोर्ड तिर्यग्लोकसंबंधिकर्मभूमितिथ्यंचमिथ्यादृष्टिगळं मनुष्यलोककर्मभूमितिय्यंचमिथ्यादृष्टिगळं चरकपरिव्राजादिमिथ्या- ५ दृष्टिगळं द्रव्यजिनलिंगधारिगळुमादियागि तेजोलेश्यामिथ्यादृष्टिगळु बद्धदेवायुष्यम्मतरागि बंदो सौधर्मकल्पद्वयनिवृत्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळागि पुटुवरवर्गळं पंचविंशतिषड्विंशतिनवविंशति त्रिंशत्प्रकृतिस्थानंगळं कटुवरु । २५ । ए प । २६ । ए प। आ। उ। २९ । ति म। ३० । ति। उ॥ ___आ सौधर्मकल्पद्वयसासादनरोळु तिर्यग्मनुष्यासंयतादिगुणस्थानत्रितयत्तिगळु प्रथमोप- १० शम द्वितीयोपशम सम्यक्त्वंगळननंतानुबंधि कषायोदयदिदं किडिपि बद्धदेवापुष्यरुगळ मृतरागि. बंदिल्लि सासादनरागि पुट्टवरवर्गळु स्वयोग्यनवविंशत्यावि द्विस्थानमं कटुवरु । २९ । ति । म । ३०। ति उ॥ आ सौधर्मकल्पद्वयनिर्वत्यपर्याप्तासंयत सम्यग्दृष्टिगोळु सर्वभोगभूमिगळवेदकसम्यग्दृष्टिगळु कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिगळागि? क्षायिकसम्यग्दृष्टिगळप्प जोवंगळं क्षायिकसम्यग्दृष्टिगळं कर्मभूमितीर्थरहिततिर्यग्मनुष्यासंयतवेशसंयतरुगर्छ मनुष्यप्रमत्ताप्रमत्तसंयतरुगळं १५ सतीर्थासंयतादिचतुर्गुणस्थानवत्तिगळ बद्धदेवायुस्तेजोलेश्यासम्यग्दृष्टिगळु मृतरागि बंदी सौधर्मकल्पद्वयद निवृत्यपर्याप्तासंयतसम्यग्दृष्टिगळागि पुटुवर-अवगंळु सतोयरादवर्गळेल्लं मनुष्यगतितीर्थयुत त्रिंशत्प्रकृतिस्थानमनोंदने कटुवरु । ३०।म। ती। तीर्थरहितरल्लं मनुष्य. नरतिर्यग्लोककर्मभमितियंचः चरकपरिव्राजादयः द्रव्यजिनलिंग्यादयश्व तेजोलेश्ययोत्पद्यते। ते निर्वत्यपर्याप्तकपंचविंशतिकषड्विंशतिकनवविंशतिकत्रिशत्कानि २५ ए प २६ ए प आ उ २९ ति म ३० ति उ । तत्सासा- २० दनेषु देशसंयतांततियंचः प्रथमोपशमसम्यक्त्वं प्रमत्तांतमनुष्या उभयोपशमसम्यक्त्वे च विराध्य बद्ध देवायुषः तेजोलेश्ययोत्पद्यते ते स्वयोग्य नवविंशतिकादिद्वयं ९ति म ३० ति उ । तदसंयतेषु सर्वभोगभूमिवेद क्षायिकसम्यग्दृष्टयः कर्मभूम्यसंयततियंचः सतीर्थातीर्थासंयताद्यप्रमत्तांतमनुष्याश्च बद्धदेवायुष्कास्तेजोलेश्ययोत्पद्यन्ते का बन्ध करते हैं। जिनके देवायुका बन्ध हुआ है ऐसे देशसंयत पर्यन्त तिर्यश्च प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी और प्रमत्तगुणस्थान पर्यन्त मनष्य प्रथम और द्वितीय उपशमसम्यक्त्वकी २५ विराधना करके तेजोलेश्याके साथ सौधर्मयुगलमें सासादन सम्यग्दृष्टी होकर उत्पन्न होते हैं। वे नित्यपर्याप्तक दशामें उनतीस और तीसका बन्ध करते हैं। जिन्होंने देवायुका बन्ध किया है ऐसे सब भोग-भूमियोंके वेदक और क्षायिक सम्यग्दृष्टी, कर्मभूमिके देशसंयत पर्यन्त तियेच, तीर्थकर प्रकृतिकी सत्तासे सहित और रहित असंयतसे लेकर अप्रमत्त पर्यन्त मनुष्य तेजोलेश्याके साथ सौधर्मयुगलमें असंयत सम्यग्दृष्टी होकर उत्पन्न होते हैं। उनमें जिनके तीर्थंकरकी सत्ता होती है वे मनुष्यगति तीर्थकर सहित तीसका बन्ध करते हैं और जिनके नहीं होती वे मनुष्यगति सहित उनतोसका बन्ध करते हैं। पद्म-शुक्ललेश्या सहित भोगभूमिया असंयत भी मरते समय तेजोलेश्यावाले होकर सौधर्मयुगलमें उत्पन्न क-११० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy