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________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका ११६१ परस्वयोगे परसंयोगदोळं स्वसंयोगदोळं भंगा हु भंगगंळप्पुवु स्फुटमागि । अदेत दोर्ड अन्नवरं गुणस्थानदोळु पेल्पडुगुं । मिथ्यादृष्टियोळु संभविसुव मूलभावंगळु क्षायोपश मिकमुमौदयिमुं पारिणामिकमुबी मूरुं भावंगळु संभविसुगुमेंदु स्थापिसिमि । औ । पा । यितु स्थापिसिंदी मूरु प्रत्येकभंगमूरक्कुं ॥३॥ द्विसंयोगभंगं मिश्रौदयिकमुं | मि औ | पा | मिश्रपारिणामिउ, मि | औ| पा| औदयिकपारिणामिकमं | मि | औ | पा। ५ + +I + + + अविरुद्धपरसंयोगे स्वसंयोगे च भंगा भवन्ति स्फुटं । तत्र गुणस्थानेषु यथा मिथ्यादृष्टयादित्रये मूलभावाः ओघ अर्थात् गुणस्थान और आदेश अर्थात् मार्गणास्थान में होनेवाले मूलभावों और उत्तरभावोंको स्थापित करके जैसे जीवकाण्डके गुणस्थान अधिकारमें प्रमादोंके कथनमें अक्षसंचारका विधान कहा है वैसे ही यहाँ अक्षसंचार विधानके द्वारा भावोंके बदलनेसे प्रत्येक भंग तथा विरोध रहित परसंयोगी स्वसंयोगी भंग होते हैं। जहाँ जुदे-जुदे भाव कहे जाते १० हैं वहाँ प्रत्येक भंग होते हैं। और जहाँ अन्य-अन्य भावके संयोग रूप भंग होते हैं उन्हें परसंयोगी कहते हैं। जैसे जहाँ औदायकके किसी भेदके साथ औपशमिक आदिका कोई भेद पाया जाता है वहाँ परसंयोगी भंग कहाता है । और जहाँ अपने भावके भेदोंका संयोग रूप भंग होता है वहाँ स्वसंयोगी कहा जाता है। आगे गुणस्थानों में कहते हैं मूलभाव मिथ्यादृष्टि आदि तीन गुणस्थानोंमें औदायिक क्षायोपशमिक पारिणामिक १५ तीन होते हैं। असंयत आदि आठमें पाँचों भाव होते हैं। क्षीणकषायमें औपशमिक बिना चार हैं। सयोगी अयोगीमें औदायिक पारिणामिक क्षायिक तीन हैं। सिद्धोंमें झायिक पारिणामिक दो हैं । अब उत्तरभाव कहते हैं मिथ्यादष्टिमें औदयिकके इक्कोस, क्षायोपशमिकके तीन अज्ञान दो दर्शन पांच लब्धि ये दस, और पारिणामिक तीन ये चौंतीस भाव हैं । सासादनमें मिथ्यात्व बिना औदयिकके २० बीस, झायोपशमिकके तीन अज्ञान दो दर्शन पाँच लब्धि ये दस, पारिणामिक जीवत्व भव्यत्व दो ये बत्तीस भाव हैं। मिश्रमें मिथ्यात्व बिना औदयिकके बीस, क्षायोपशमिकके मिश्र रूप तीन ज्ञान, तीन दर्शन, पाँच लब्धि ये ग्यारह, पारिणामिक दो जीवत्व भव्यत्व ये तैंतीस भाव है। असंयतमें मिथ्यात्व बिना औदयिकके बीस, क्षायोपशमिकके तीन ज्ञान तीन दर्शन पाँच लब्धि, सम्यक्त्व ये बारह, औपशमिक सम्यक्त्व क्षायिक सम्यक्त्व, दो २५ पारिणामिक ये छत्तीस भाव हैं। देशसंयतमें औदयिकके मनुष्य तियच दो र्गात चार कषाय तीन लिंग तीन लेश्या असिद्धत्व अज्ञान ये चौदह, झायोपशमिकके तीन ज्ञान तीन दर्शन पाँच लब्धि सम्यक्त्व देशचारित्र ये तेरह, औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, दो पारिणामिक ये इकतीस भाव हैं। इनमें तियचगति और देशाचारित्र घटाकर मनापर्यज्ञान सरागचारित्र मिलानेपर प्रमत्त अप्रमत्तमें इकतीस-इकतीस भाव होते हैं। इनमें पीत पद्म ३० लेश्या, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व चारित्र घटाकर औपशमिक चारित्र क्षायिक चारित्र मिलानेपर अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरणमें उनतीस-उनतीस भाव हैं। इनमें लोभ बिना तीन कषाय और तीन लिंग घटानेपर सूक्ष्म साम्परायमें तैतीस भाव हैं। इनमें लोभ कषाय क्षायिक १. म यक्कु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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