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________________ ७६९ कर्णाटवृति जीवतत्त्वप्रदीपिका इल्लि नवकसमयप्रबद्धक्क अंकसंदृष्टि नाल्कु ४। अदक्कचलावलिकालमाबाधेयक्कुमायचलालिगेयुं नाल्कु शून्यं संदृष्टियक्कं । आ नवकसमयप्रबद्धमचलावलिकालमं कळियलोडनावलिमात्रपाळिगळप्पुबु । ४ । अवरोळु समयं प्रत्येकैकपालिगळिकडुत्तं विरलावळिमात्रकालक्कुदयिसि पोपुवंतु पोगुत्तं विरलु गळितावशेषसमयप्रबद्धंगळु एकद्वियादिपाळिगळ्गं समयप्रबद्धांशत्वदिवं समयप्रबद्ध मेंदु पेळल्पद्रुदी समयोनद्वयावलिमात्रनवकबंधसमयप्रबद्धंगल पुंवेदोदयारूढचतुब्बंधका- ५ निवृत्तिकरणवेदरहितभागदोळु सत्वमक्कुमवक्के स्वमुखोदयमिल्लदे परमुखोदयदोळु समयोनद्वयावळिमात्रकालक्कुच्छिष्टावलिमात्रनिषेकंगळु सहितमागि केडुवुदे दरिवुदु । उच्छिष्टावलिये बुदेन दोडे उदयमुळळ प्रकृतिगळ्गावलिमात्रनिषेकंगळवशिष्टमादागळवक्के स्वमुखोदयमिल्लदे परमुखोदयदिदमेयावळिमात्रकालक्के प्रतिसमयमेकैकनिषेकक्रमदिदं किडुवुवु । मत्तमुदयरहित प्रकृतिगळगावलिमात्रनिषेकंगळं कळेदु लक्षिसल्पट्ट चरमस्थितिकांडकचरमपाळि किडुत्तं विरलु १० शेषोच्छिष्टावलिमात्रनिषेकंगळ्णे क्षपणे इल्लप्पुरदं स्थितोत्कसंक्रमविधानदिदं परमुखोददिंदमावलिमात्रकालक्के प्रतिसमयमेकैकनिषेकंगळु संक्रमिसि केटु पोपुर्वेदरिवुदु । ___उक्तार्थानुवादपुरस्सरमागियानिवृत्तिकरणनोळु सत्वस्थानविशेषंगळं पेळ्दपरु । ~ ~ संदृष्टिः बं४। स४। ५ ।१।२।३।४।४।४।४।४। ५ । ११ । आ ०।०।०।०। बाधा अत्र नवकसमयप्रबद्धस्यांकसंदृष्टिश्चतुष्कं । तस्याचलावलिराबाधा । तस्याः संदृष्टिश्चतुःशून्यं । उच्छिष्टावलिस्तु उदयागतानामावलिमात्रका अनदयागतानामावलिमात्रनिषेकानतीत्य लक्षितचरमस्थितिकांडकचरम- १५ फालिपतनेऽवशिष्टावलिमात्रनिषेकाश्च क्षपणां विना स्थितोक्तसंक्रमविधानेन परमुखोदयेनैव प्रतिसमयमेकैकनिषेकगलनक्रमेण विनश्यंतीति ॥५१४॥ उक्तार्थानवादपुरस्सरमनिवृत्तिकरणे सत्त्वस्थानविशेषानाह ___ संदृष्टि में नवक समयप्रबद्धकी पहचान चारका अंक है। उस समयप्रबद्धकी अबाधा अचलावली प्रमाण है। उसमें उसका उदयादि नहीं होता। उसकी पहचान चार बिन्दी हैं। उच्छिष्टावलीका अभिप्राय-जो कर्म उदयको प्राप्त हैं उनके आवली मात्र शेष रहे निषेक २० और जो कर्म उदयको प्राप्त नहीं हुए उनके आवली मात्र निषेकोंको लाँधकर स्थितिके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालीके पतनमें आवलीकाल मात्र शेष रहे निषेक, वे क्षपणा बिना सक्रम विधानके द्वारा अन्य प्रकृतिरूप हो परमुख उदय द्वारा प्रति समय एक-एक निषेक क्रमसे गलकर नष्ट होते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि वेदके क्षपणा कालमें जो पुरुषवेदके नवक समयप्रबद्धका सत्त्व शेष रहता है वह क्रोध झपणाकालमें क्रोधरूप परिणमन करके नष्ट २५ होता है। इससे वहाँ पाँचका भी सत्त्व जानना ॥५१४। इस अर्थको कहकर अनिवृत्तिकरणमें सत्त्वस्थानोंका विशेष कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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