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________________ ७१७ कर्णाटवृत्ति वीक्तत्त्वप्रदीपिका अप्र २८ २९ ३० ३१ अपू २८ २९ ३० ३१ अपूर्वकरणचरमभागप्रथम. समयं मोदल्गोंडु मूक्ष्मसांपरायगुणस्थानचरमसमयपर्यंत यशस्कोत्तिनामकर्मबंधमेकप्रकृतिस्थानवोळेकभंगमेयक्कुमवावगतियुतमल्तु । अनंतरं भवच्यवनोत्पत्तिगळं पेन्दपर : रइयाणं गमणं सण्णीपज्जत्तकम्म तिरियणरे । चरिमचऊ तित्थूणे तेरिच्छे चेव सत्तमिया ॥५३८॥ नारकाणां गमनं संजिपंचेंद्रियकर्म तिय्यंग्नरे। चरमचतसृणां तीर्थोने तिरश्च्येव सप्तम्याः ॥ ___ नारकाणां गमनं घम्मे यं वंशेयं मेघेयुमें बी मूरुं पृश्विगळ नारकरगळ्गे स्वस्वायु:स्थितिक्षयवशदिदं मृतरागि नारकभवमं पत्तविटु बंदावेडयोळाव गतिजरोळु पुटुवर दोडया मूरु पृथ्विगळ नारकरुळगे गम्भंज पंचेंद्रियपर्याप्तसंज्ञिकर्मभूमितिय॑ग्मनुष्यरोल जननमक्कुम. १० ते दोड, मवरंगळ पूर्वापर पंचविदेहंगळं पंचभरतंगळं पंचैरावतंगळुमेंब पंचदशकर्म भूमिगळोळु यथायोग्यमल्लियादोडं तोत्थंकरुं चरमांगरु मा यिवरुमल्लद सामान्यपर्याप्तमनुष्यरागियं जनियिसुवरु। मत्तमा पंचवश कर्मभूमिगळोळं कर्मभूमिप्रतिबद्धस्वयंप्रभाचलापरभाग स्वयं भूरमण द्वीपादोळ स्वयंभूरमणसमुद्रवोळं गर्भजपंचेंद्रियपर्याप्त संजितिय॑ग्जीवंगळागियं जनियिसुवद । कम्मभूमिविशेषणत्वविवमा पंचमंवरंगळ दक्षिणोत्तरदिग्भागस्थित निषषनीलगजदंत पर्वत १५ द्वितयांतरितवेवकुहत्तरकुरुत्तम भोगभूमिगळ्पत्तरोळं (ळंतरित) हिमवन्निषधांतरित हरिक्षेत्र २९ । दे २८ । २९ । प्र २८ । २९ अप्रमत्तापूर्वकरणयोः देवगतियताष्टाविंशतिके तीर्थयतकान्नत्रिशके तीर्थ ८ ८ ८ ८ ८ वियुताहारकद्वययुतत्रिशत्के तीर्थाहारकयुतकत्रिशरके च भंग एकैक एव । अप्र २८ २९ ३० ३१ पपू २८ २९ ३० ३१ । अपूर्वकरणपरमभागप्रथमसमयादासूक्ष्मसांपरायचरमसमयं यशस्कोतिबंधकपैकके भग एकः ॥५३७॥ अथ भवच्यवनोत्पत्ती प्राह नारकाणां गमनं-मृत्वोत्पत्तिः, धर्मादित्रय जानां गर्भजपंचेंद्रियपर्याप्तसंज्ञिकर्मभूमितियंग्मनुष्ये देव, अप्रमत्त और अपूर्वकरणमें देवगति सहित अठाईसका, तीर्थकर सहित उनतीस, तीर्थंकर रहित आहारकद्विक सहित तीस और तीर्थकर आहारकद्विक सहित इकतीस इन चारों स्थानोंमें प्रतिपक्षी अप्रशस्त प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। अतः एक-एक ही भंग होता है। अपूर्वकरणके अन्तिम भागके प्रथम समयसे सूक्ष्म साम्परायके अन्तिम समय पर्यन्त एक २५ यशस्कीर्तिका बन्धरूप ही स्थान है तथा एक ही भंग है ।।५३७॥ आगे एक भवको छोड़ने और दूसरे भवमें उत्पन्न होने का नियम कहते हैं नारकियोंका गमन अर्थात् मरकर उत्पन्न होना कहते हैं। धर्मा आदि तीन नरकोंके । नारकी मरकर गर्भज पंचेन्द्रिय पर्याप्त संज्ञी कर्मभूमिया तिथंच और मनुष्योंमें ही जन्म लेते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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