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________________ गो० कर्मकाण्डे तुवष्परिवं शस्तप्रकृतिये बंधमनप्दुगुमप्पुरिदं मि २९ असं २९ ३० तिर्यग्मनुष्यगतिजरप्प मिश्रासंयतरुगळ्गे मनुष्यगतियुतस्थानद्वयमेके पेळल्पड दोर्ड वज्ज ओराळमणुदु यित्याद्यसंयतबंधषट्प्रकृतिगळगं सासादननोळ बंधव्युच्छित्तियुटप्पुरिदं तद्गतिजग्र्ग तबंध स्थानंगळ्गऽभावमक्कुमप्पुरिदं । मिथ्यादृष्टयादिदेवयुतस्थाने प्रमत्तांते मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रा५ संयतरुगळ देवगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिबंधस्थानदोळं मत्तमसंयतन देवगतितोत्थंयुप्तयिकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानदोळं देशसंयतन देवगतियुत तीर्थरहित सहिताष्टाविंशत्येकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानंगळोळं प्रमत्तसंयतन देवगतियुत तीर्थरहित सहिताष्टाविंशत्येकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानंगळोळमितु मिथ्यादृष्टयादि प्रमत्तसंयतावसानमाद गुणस्थानंगळोळु देवगतियुताष्टा विशति एकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानंगळोळं शस्तं बंधमेति प्रशस्तप्रकृतिबंधमक्कुमादोडं अस्थिरा१० शुभायशस्कोत्तिनामप्रकृतिगळ्गे प्रमत्तसंयतनोळ व्युच्छित्तियप्पुरिदं । प्रमत्तपय्यंतं स्थिरशुभयशोयुग्माष्टभंगंगळप्पुवु। खलु स्फुटमागि | मि २८ | सा २८ | मि २८ | अ २८ | २९ ! दे २८/२९ | प्र २८।२९ । ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ अप्रमत्तसंयतंगमपूर्वकरणंगं देवगतियुताष्टाविंशति तीर्थयतैकान्नत्रिंशत् । तीर्थरहिताहारकद्वययुतत्रिंशत् । तीहारयुतैकत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानंगळोळ एकैकभंगमेयषकुमेके दोर्ड १५ प्रमत्तसंयतनोळ अस्थिराशुभायशस्कोत्तिनामकर्मप्रकृतिगळ्गे बंधव्युच्छित्तियंटप्परिदमेकतर बंधाभावमप्पुरिदं प्रशस्तप्रकृतिबंधमेयककुमप्पुरिदं । त्रिंशत्के च स्थिरशुभयशोयुग्मकृतभंगा अष्टावष्टौ दुर्भगदुःस्वरानादेयाप्रशस्तविहायोगतिबंधस्य सासादने एव च्छेदात् । मि २९ असं २९ ३० । तियंग्मनुष्यमित्रासंयतयोस्तु मनुष्यगतियुतबंधस्य सासादने छेदात्तत्स्थानद्वयं न ८ ८८ बध्नाति । मिथ्यादृष्टयाद्यसंयतांतानां देवगतियुताष्टाविंशतिके असंयतस्य देवगतितीर्थयुतकान्नत्रिशत्के देशसंयतस्य प्रमत्तस्य च देवगतियुततीर्थयुतवियुताष्टाविंशतिकैकान्नत्रिंशत्कयोश्च प्रशस्तं बंधमेत्यप्यस्थिराशुभायशस्कीर्तीनां प्रमत्तपयंतं बंधात् तस्त्रियुग्मकृत्या अष्टावष्टौ भंगा भवंति खलु स्फुटं मि २८ । सा २८ । मि २८ । अ २८, ८ ८ ८ ८ एक-एक ही प्रकृतिका बन्ध होता है। दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अप्रशस्त विहायोगतिके बन्धका विच्छेद सासादनमें ही हो जाता है। अतः तीन युगलोंकी प्रकृतियां बदलनेसे आठ-आठ भंग होते हैं। तिर्यंच और मनुष्य मिश्र तथा असंयत गुणस्थानवर्तीके मनुष्यगतिके २५ बन्धका विच्छेद सासादनमें ही हो जाता है। इससे यहां उन दोनों स्थानोंका बन्ध नहीं होता। मिध्यादष्टि आदि असंयत गणस्थान पर्यन्त जीवोंके देवगति सहित अठाईसके स्थान में और असंयत सम्यग्दृष्टीके देवगति तीर्थ कर सहित उनतीसके स्थानमें तथा देशसंयत और प्रमत्तमें देवगतियुत अठाईसके स्थान और देवगति तीर्थंकर सहित उनतीसके स्थानमें प्रशस्त प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है। तथापि अस्थिर, अशुभ और अयशस्कीतिका बन्ध प्रमत्त गुण३० स्थान तक ही होता है। इससे इन स्थानों में इन तीन युगलोंके आठ-आठ भंग होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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