________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७९५ सासादनंगुद्योतनामकर्मबंधमुटप्पुरिंदमुद्योतरहितसहितकान्नत्रिशत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानगोळं द्वात्रिंशच्छत प्रमितभंगंगळप्पुवे ते दोडे मिथ्यादृष्टियोळु हुंडसंस्थानमु मसंप्राप्तसृपाटिकासंहननमुं बंधव्युच्छिन्नंगळादुवप्पुरिदं पंचपंचसंस्थानसंहननंगळिदं सप्तद्विकंगळिदं संजातभंगंगळु ५। ५। १२८ । गुणिसिदोडे तावन्मात्रंगळेयप्पुवप्पुरिदं । सा २९ । ३० मतमा सासा
३२०० । ३२०० दनन मनुष्यगति पंचेंद्रियपर्याप्तयुतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानदोळ तावन्मात्र भंगंगळयप्पुवु- ५ सा २९ ३२०० अनंतरं मिश्रगुणस्थानादिगळोळ पेळ्दप :
मिस्साविरदमणुस्सट्ठाणे मिच्छादिदेवजुदठाणे ।
सत्थं तु पमत्तंते थिरसुहजसजुम्मगट्ठभंगा हु ।।५३७।। मिश्राविरतमनुष्यस्थाने मिथ्यादृष्टादिदेवयुतस्थाने। शस्तं तु प्रमत्तांते स्थिरशुभयशोयुगमाष्टभंगाःखलु ॥
देवनारकगतिजमिश्रासंयतगुणस्थानत्तिगळ पर्याप्तमनुष्यगतियुतेकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंध स्थानमं कटुवरंता स्थानदोळं मत्तं देवनारकगतिजाऽसंयतसम्यग्दृष्टिगळु मनुष्यगतिपर्याप्ततीर्थयुतत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानमं कटुवरन्ता स्थानवो स्थिरशुभयशोयुग्माष्टभंगंगळेयप्पुवेक दोडे सासादननोळ दुर्भगदुःस्वरानादेयाप्रशस्तविहायोगति चतुःप्रतिपक्षप्रकृतिगळ्गे बंधव्युच्छित्तियाबंधान्मिथ्यादृष्टिस्थानभंगेषु नोक्तं । सासादनस्योद्योतरहितकान्नत्रिंशत्के तद्युतत्रिंशत्के च पंचसंस्थानपंचसंहनन- १५ सप्तद्विककृताः द्वात्रिंशच्छतान्येव सा २९ ३०। सासादनस्य मनुष्यगतिपंचेंद्रियपर्याप्तयुतकान्नत्रिंशत्केऽपि
३२०० ३२०० तावंतः सा २९ ॥५३६॥ अथ मिश्रगुणस्थानादिष्वाह
३२०० देवनारकमिश्रासंयतयोः पर्याप्तमनुष्यगतियुतकान्नत्रिंशत्के तवयासंयतस्य मनुष्यगतिपर्याप्ततीर्थयुत
मनुष्यगति सहित तीसका स्थान तीर्थकर सहित है। इसलिए उसका बन्ध असंयत सम्यग्दृष्टी देव नारकियोंमें ही होता है। इसलिए मिथ्यादृष्टिके बन्धस्थानके भंगोंमें इसे २० नहीं कहा।
सासादनके उद्योत रहित उनतीसके स्थानमें और उद्योत सहित तीस के स्थानमें पाँच संस्थान, पांच संहनन और सात युगलों में से एक-एकका ही बन्ध होता है । अतः इनमेंसे एक-एक प्रकृति बदलनेसे बत्तीस सौ-बत्तीस सौ भंग होते हैं। सासादनके मनुष्यगति पंचेन्द्रिय पर्याप्त सहित उनतीसके स्थानमें भी इसी प्रकार बत्तीस सौ भंग होते हैं ॥५३६।। आगे मिश्र गुणस्थान आदिमें कहते हैं
२५ देव नारकी मिश्र और असंयत गुणस्थानवर्तीके पर्याप्त मनुष्यगति सहित उनतीसके स्थानमें तथा देव नारकी असंयत गुणस्थानवर्तीके मनुष्यगति पर्याप्त और तीर्थकर सहित तीसके स्थानमें स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, यशकीर्ति-अयशस्कीति इन तीन युगलों में से किसी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org