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गो० कर्मकाण्डे
सिदोर्ड पल्या संख्यातैकभागमक्कुमेंदु पेळल्पदुदु प अनुकृष्टिखंडंगळं तावन्मात्रंगळे यप्पुवंतागुत्तळं
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तिर्व्यक्कागिचयाधिकक्र मंगळ पुर्वन्नेवरं चरममन्नेवरं अंतुचयाधिकक्र मंगळादोडं स्वस्वजघन्यानुकृष्टिखंडमं नोडलुं स्वस्वोत्कृष्टानुकृष्टिखंडं विशेषाधिकमेयक्कुं । द्विगुणत्रिगुण मागदे बुदस्थं ॥ आविशेषप्रमाण विज्ञापनात्थं मुंदणगाथासूत्रमं पेदपरु । :
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लोगाणमसंखमिदा अहियषमाणा हवंति पत्तेय ।
समुदायेणवि तच्चिय ण हि अणुकेड्ढिम्म गुणहाणि ॥ ९५५ ॥
लोकानाममसंख्य मितान्यधिकप्रमाणानिभवंति प्रत्येकं । समुदायेनापि तावन्मात्रं न ह्यनु
त्कृष्टौ गुणहानिः ॥
अनुकृष्टि तिर्थ्यक् प्रचयप्रमाणंगळं गुणहानिं प्रत्येकमसंख्यातलोकप्रमाणंगळप्पुवु ।
१० सामान्यदिदं
० प प प
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अ ० ० ० गु गु ३
प्रति द्विगुणद्विगुणंगळादोडमाळापएतदोडे
प्रथमगुणहानिप्रचयमनिदं अणुपदे हिदे पचये पचयंतु होदि तेरिच्छे एंदित नुकृष्टिपर्दादद
मूर्ध्वप्रचपमं भागिसिदोडेतिर्य्यगनुकृष्टि प्रचयप्रमाणमक्कु पपप
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अ aaa ग ग ३ प २
दोडसंख्यात लोकमात्र मक्कुमप्युर्दारदमधिक प्रमाण संख्यात लोकमात्रमे दितु पेल्पटु । ईयसंख्यात
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१५ तज्जघन्यात्तदुत्कृष्टविशेषाधिकमेव न द्विगुणादि ॥ ९५४ ॥ तद्विशेषप्रमाणं ज्ञापयति-
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संख्यातैकभागे प । १ । १ अपवर्तिते तत्सिद्धे । अनुकृष्टिखंडानि तावन्ति तिर्यक् स्याधिकक्रमाणि । तथापि छे-व-छे
मिदनपर्वात्तसि
अनुकृष्टिप्रचयस्य गुणहानि गुणहानि प्रति द्विगुणत्वेऽपि तत्प्रमाणान्याला पनामान्येन प्रत्येकमसंख्यात लोका
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रचना तिर्यकरूपसे बराबर में होती है। तथा प्रथम खण्ड से लेकर क्रमसे उनमें एक-एक चय अधिक होता है, फिर भी जधन्य प्रथम खण्डसे उत्कृष्ट अन्तिम खण्ड कुछ अधिक प्रमाणवाला है, दुगुना-तिगुना नहीं है ||९५४ ||
उस विशेष प्रमाणको कहते हैं
अनुकृष्टिका चय प्रत्येक गुणहानिमें दूना-दूना होता है फिर भी सामान्यसे असंख्यात लोकमात्र है; क्योंकि विवक्षित गुणहानिकी ऊर्ध्वरचना में जो चयका प्रमाण है उसमें अनुकृष्टि गच्छका भाग देनेपर अनुकृष्टि के चयका प्रमाण आता है, सो स्थूलरूप से असंख्यात लोकप्रमाण ही है । उसमें प्रथम खण्डसे एक-एक चय अधिक द्वितीयादि खण्ड होते हैं ।
२५ १. मु. अणुकिट्टिम्मि ।
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