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________________ गो० कर्मकाण्डे पूर्व्वा परस्थानसंताने पूर्व्वापराऽपरपूर्व्वस्थानसमुदायदोलु २३ २५ २६ २८ २९ ३० ३१॥१॥ अनुसंधानकरणमागुत्तं विरल भुजाकारंगळ मल्पत रंगळु मप्पुवु । प्रकृतितमोऽसन्तानः सदृशाक्षापेक्ष इंदं प्रकृति संख्या समम तुळुदादोडं असंतानः प्रकृतिसमुदाय भेदमुळ अपुनरुक्त इति निद्दिष्ट: अपुनरुक्तमें दु पेळपट्टुवु । अदें तें दोडे नववंशतिप्रकृतिस्थानदोल संहननभेदविदं तीर्थभेददिदं ५ प्रकृति समुदाय के समत्वमादोडम पुनरुक्तत्वं सिद्धर्मतं ॥ १० १५ २० २५ ३० ९२६ भजगारे अप्पदरेऽवत्तव्ये ठाइदूण समबंधे । होदि अदिबंधो तब्भंगा तस्स भंगा हु || ५८१ ॥ भुजाकारान् अल्पतरानवक्तव्यान् स्थापयित्वा समबंधे भवत्यवस्थितबंधः तदभंगास्तस्य भंगाः खलु ॥ भुजाकारंगळनू अल्पतरंगळनू अवक्तव्यंगळनू बेरे बेरं स्थापिसि द्वितीयादि समयंगळोल समानबंधमागुत्तं विरल अवस्थितबंध मक्कुमद् कारणमागि तद्भंगाः तेषां भुजाकारादीनां भंगास्तभंगाः । आ भुजाकाराकारादिगळ भंगंगळु तस्य भंगाः खलु अवस्थितभंगगळप्पुवु । स्फुटमागि॥ अनंतरमवक्तव्य भंगंगळं पेळदपरु : पडिय मरिएक्मेक्कूणतीस तीसं च बंधगुवसंते । बंधो दु अवतव्वो अवद्विदो विदियसमयादी ||५८२ | पतित मृतैकैकोनत्रिशत्रिशच्च बंधकोपशांते । बंधस्त्ववक्तव्योऽवस्थितो द्वितीयसमयादिः ॥ पूर्वस्थानस्यात्पप्रकृतिकस्य बहुप्रकृति के नानुसंधाने भुजाकारा भवंति । परस्थानस्य बहुप्रकृतिकस्याप प्रकृति के नानुसंधानेऽल्लतरा भवंति । प्रकृतिसंख्पासमानोऽपि यः असंतानः प्रकृतिसमुदाय भेदयुक् सोऽपुनरुक्त इति निर्दिष्टः यथा - संहननेन तीर्थेन वा युते नवविंशति के प्रकृतिसमुदायस्य समत्वेऽप्यपुनरुक्तत्वं ॥ ५८० ॥ भुजकारानल्पत रानवक्तव्यांश्च संस्थाप्य द्वितीयादिसमयेषु समानं बध्नाति तदावस्थितबन्धः स्यात् । ततस्तेषां भंगा यावंतस्तावन्तः खल्ववस्थितभंगा भवन्ति ॥ ५८१ ।। अथ तानवक्तव्यभंगानाह है थोड़ी प्रकृतिरूप पूर्व स्थानको बहु प्रकृति रूप स्थानके साथ लगानेपर मुजाकार होता है । बहु प्रकृति रूप पिछले स्थानको थोड़ी प्रकृति रूप स्थानके साथ लगाने पर अल्पतर होता है। प्रकृतियोंकी संख्या समान होते हुए भी जो असन्तान है अर्थात् प्रकृति भेदयुक्त वह अपुनरुक्त कहा है। जैसे तीर्थ बिना संहनन सहित भी उनतीसका बन्ध है और तीर्थ सहित संहनन बिना भी उनतीसका बन्ध है । इन दोनोंमें उनतीसकी संख्या समान होते हुए भी तीर्थंकर और संहनन प्रकृतिका भेद होनेसे अपुनरुक्तपना कहा है ||५८०|| भुजकार अल्पतर और अवक्तव्य भंगोंको स्थापित करके द्वितीयादि समयों में जब समान बन्ध होता है तब अवस्थित बन्ध होता है। अतः उन तीनोंके जितने भंग होते हैं उतने ही अवस्थित भंग होते हैं ||५८१ ॥ आगे अवक्तव्य भंगोंको कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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