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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ९२७ अवरोहणपतितकबंधकोपशांतकषायनोळं मृतकोनविंशत्त्रिशत्प्रकृतिबंधकोपशांतकषाय. नोळुमवक्तव्यबंधमक्कुं। तु मत्त द्वितीयसमयादियागुळ्ळ बंधमवस्थितबंधमक्कुमदरियल्पडुगुं । भुजाकारादिगळेदु पेळल्पडदववक्तव्यंगळप्पुवु । एते दोडे उपशांतकषायनवतरणदोळु नामकर्मबंधकनल्लदिकप्रकृतिस्थानमं सूक्ष्मसांपरायनागि कट्टिदोडोंदु भंगमुं मरणमादोडे देवासंयतनागि मनुष्यगतियुताष्टभंगयुतनविंशतिस्थानमं कट्टिदोडेंटु भंगंगळं सतीर्थाष्टभंगयुतमनुष्य- ५ गतियुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमं कट्टिदोडेंटु भंगंगळुमंतु पदिनेछ भंगंगळप्पुवु १७॥ द्वितीयादिसमयंगळवस्थित भंगंगळोळवस्थित भंगंगळुमितुपदिनेळप्पुबुदत्थं ॥१७॥ घोरसंसारवाराशितरंगनिकरोपमैः। नामबंधपदैर्जीवा वेष्टितास्त्रिजगद्भवाः॥ अनंतरं नामकर्मोदयस्थानप्ररूपणप्रकरणमं द्वाविंशतिगाथासूत्रंगळिंद पेळलुपक्रमिसुतं नामकर्मोदयस्थानंगळ्गे पंचकालंगळप्प दु पेळ्दपरु : विग्गहकम्मसरीरे सरीरमिस्से सरीरपज्जत्ते । आणावचिपज्जत्ते कमेण पंचोदये काला ॥५८३॥ विग्रहकार्मणशरीरे शरीरमिश्रे शरीरपर्याप्तौ। आनापानवाक्पर्याप्त्योः क्रमेण पंचोदये कालाः॥ विग्रहगतिय कार्मणशरीरदोळं शरीरमिश्रदोळं शरीरपर्याप्तियोळं आनापानपर्याप्तियोळं १५ भाषापानियोळंमिती क्रमदिदं नामकर्मप्रकृतिस्थानोदयंगळगवसरकालंगळदप्पुवु। यिल्लि विग्रहगतियोळे दोडे साल्गुं। विग्रहगतिय कार्मणशरीरदोळे देनलेके दोडे विग्रहगतियोळल्लदे अवक्तव्यास्तु उपशान्तकषाये किमपि नामाबघ्नन् पतितः सूक्ष्मसांपरायं गत एककं बध्नाति वा मरणे देवासंयतो भूत्वा मनुष्यगतिनवविंशतिकं मनुष्यगतितीर्थत्रिशत्कं चाष्टाष्टधा बध्नातीति सप्तदश भवन्ति । पुनः तद्वितीयादिसमयेष्ववस्थितबन्धः स्यात्तेन तेऽपि तावन्तः । धोरसंसारवाराशितरंगनिकरोपमैः । नामबन्धपदैर्जीवा वेष्टितास्त्रिजगद्भवाः ॥१॥ ५८२। अथ नामोदयस्थानानि द्वाविंशतिगाथाभिराहतेषां स्थानानामुदयस्य नियतकालत्वात्ते कालाः विग्रहगतिकार्मणशरीरे शरीरमित्रे शरीरपर्याप्ती उपशान्त कषायमें किसी भी नामकर्म प्रकृतिको न बाँधकर पीछे सूक्ष्म साम्परायमें २५ आकर एकको बाँधता है । अथवा मरनेपर देव असंयत होकर मनुष्यगति सहित उनतीस या मनुष्यगति तीर्थ सहित तीसको आठ-आठ भंग सहित बाँधता है। इस तरह सतरह अवक्तव्य बन्धके भंग होते हैं। द्वितीयादि समयमें भी उतना ही बन्ध होनेपर अवस्थित बन्ध भी उतने ही जानना ॥५८२।। अब नामकर्मके उदयस्थान बाईस गाथाओंसे कहते हैं नामकर्मके उदय स्थानोंका काल नियत है। जिस-जिस कालमें उदय योग्य हैं वहाँ ही उनका उदय होता है वे काल पाँच हैं-विग्रहगति या कार्मण शरीर, मिश्रशरीर, शरीर पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, और भाषापर्याप्ति काल । कार्मण शरीर जब पाया जाये वह क-११७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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