SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 713
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका १३४१ स्थानंगळु तद्योंग्य संख्यातसहस्रंगळप्पुर्वेदु पेळल्पटुदु । तु मत्ते शेषद्वादशजीवसमासंगळ्गे “एयप्पण कादि पण्णं - बासूपबासू अवरद्विदीओ" ये दोत्यादि स्थितिगळ्गे निरंतरस्थितिस्थानविकल्पंगळे. यप्पुवु ॥ अनंतरमी स्थितिविकल्पबंधकारणंगळु कषायाध्यवसायंगळेदवं मूलप्रकृतिगळ्गे पेळ्वपरु आउट्ठिदिबंधज्झवसाणठाणा असंखलोगमिदा । णामागोदे सरिसं आवरणदु तदियविग्घे य ॥९४७॥ आयुस्थितिबंधाध्यवसायस्थानान्यसंख्यलोकमितानि । नामगोत्रयोः सदृशमावरणद्वयतृतीयविघ्ने च ॥ आयुस्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळ सर्वतस्तोकंगळप्पुवंतागुत्तलं तद्योग्यासंख्यातलोकमात्रं गळप्पुवु। नामगोत्रंगळ्गे तम्मोळु पल्यासंख्यातेकभागत्वविदं समानंगळप्पुवु।ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयांतरायंगळ्गेयं तम्मोळु पल्यासंख्यातकभागमात्रत्वदिदं समानंगळप्पुवु । सव्वुवरि मोहणीये असंखगुणिदक्कमा हु गुणगारो। पल्लासंखेज्जदिमो पयडिसमाहारमासेज्ज ॥९४८॥ सर्वोपरि मोहनीये असंख्यातगुणितकमाणि खलु गुणकारः। पल्यासंख्यातेकभागः प्रकृतिसमाहारमाश्रित्य ॥ पणकदीत्यादि वासूपेत्यादिसूत्रोक्तानि तु तानि निरन्तराणि ॥९४६॥ अथ स्थितिविकल्पकारणकषायाध्यवसाया- १५ न्मूलप्रकृतीनाह आयुःस्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि सर्वतः स्तोकान्यपि तद्योग्यासंख्यातलोकमात्राणि । नामगोत्रयोस्ततः पल्यासंख्यातकभागगुणत्वेन समानानि । ततः ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयान्तरायाणामपि तथा समानानि ॥९४७॥ आयुगमा और गोत्रकर्मकी आठ मुहूर्तपर्यन्त, शेष कर्मों की एक मुहूर्तपर्यन्त स्थितिको बाँधता है। इस २० प्रकार सान्तर स्थितिके भेद संख्यात हजार होते हैं। संज्ञीपर्याप्त और अपर्याप्तके बिना शेष बारह जीव समासोंमें 'एयं पणकदि पण्णं' तथा 'वासूप' आदि गाथाओंके द्वारा पहले स्थितिबन्धके कथनमें जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थिति कही है। सो उत्कृष्ट स्थितिसे जघन्य स्थिति पर्यन्त क्रमसे एक-एक समय घाट निरन्तर स्थितिके भेद जानना ॥९४६॥ आगे स्थितिके भेदोंमें कारणभूत कषायाध्यवसायस्थान कहते हैं-उन्हें स्थिति १ बन्धाध्यवसायस्थान भी कहते हैं __ आयु कर्मके स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान यद्यपि सबसे थोड़े हैं। फिर भी यथायोग्य असंख्यात लोकप्रमाण हैं। उनसे नाम और गोत्रके स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान पल्यके असंख्यातवें भाग गुणे हैं । इस तरह परस्पर में दोनोंके समान हैं। उनसे पल्यके असंख्यातवें भाग गुणे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अन्तरायके स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान हैं। चारोंके परस्परमें समान हैं ।।९४७।। सबसे ऊपर मोहनीयमें स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान उनसे पल्यके असंख्यातवें भाग गुणे हैं । यहाँ प्रसंगवश सिद्धान्तके वचन कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy