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गो० कर्मकाण्डे
एल्लवरिदं मोहनीयदोळ प्रकृतिसमाहारमनाश्रयिसि प्रकृतिस्थितीनां विकल्पाः प्रकृतिसमाहारस्तमाश्रित्य प्रकृतिविकल्पंगळनाश्रयिसि कषायाध्यवसायस्थानंगळितु नरेडेयोळमसंख्यातगुणितमंगळवा गुणकारप्रमाणमुं पल्यांसंख्यातैकभागमक्कुं । संदृष्टि
मोहनीय
णा. दं. वे. अं.
नाम गोत्र
पपप
आयुष्य
इि प्रस्तुतमप्प सिद्धांतवाक्यंगळ :-ण च सव्वमूळपडणं समाणाणां कसायोदयद्वाणाणमेत्थ गहणं । कसायोदयट्ठाणेण विणा मूळपयडिबंघाभावेण ५ सव्वपयडिट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं समाणत्तप्पसंगादो । तम्हा सम्ब मूळपयडीणं सगसगसगउदयो समुष्वण्णप्पपरिणामाणं सगसगट्ठिदिबंधकारणं तेण ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणस ण्णिदाणमुत्तरपच्चयाणमेत्य गहणं । पर्याडिसमाहारमासेज्ज णाणावरणादीणं पयडीणं सगसगठिदिबंधकारणज्झवसाणट्ठाणाणि सव्वाणि ? एगतं काऊण पमाणं परुविदं ण ट्रिट्ठद पडि एसा परूवणा होदि । उवरिमसुतेहि ठिदिं पडि अज्झव साणपमाणस्स परूविज्जमाणत्तादो । हेट्ठिमेहितो उवरिमाणि १० किमट्ठमसंखेज्जगुणाणि साहावियादो । मिच्छत्तासंजमकसायपच्चयेहि सव्वाणि कम्माणि सरिसाणि । तेण एदेसि कम्माणमज्झवसापाट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणित्ति ण घडवे । हेट्ठिमाण ठिबंधट्ठाहतो उवरिमाणं कम्माणं ठिदिबंधट्ठाणाणि अहियाणित्ति असंखेज्जगुणतं न
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३।१
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सर्वोपरि मोहनीये प्रकृतीनां स्थितिविकल्पसमूहमाश्रित्य कषायाध्यवसायस्थानानि त्रिषु स्थानेष्वसंख्यातगुणित भागः अत्र प्रस्तुत सिद्धान्तवाक्यानि –
णय सव्वमूलपयडीणं समाणाणं कसायोदयद्वाणाणमैत्थ गहणं । कसायोदयट्ठाणेण विना मूलपयडबन्धाभावेण सव्वपयडिट्टिदिबन्धज्मवसाणट्टाणाणं समाणप्पसंगदो । तह्मा सम्बमूलपयडीणं सगसगउदयादो समुपण्णपरिणामाणं सगसगट्ठिदिबन्धकारणत्तेण ठिदिबन्धज्झवसाणट्टाणसष्णिदाणमुत्तरपच्चयाणमेत्थ गहणं । पयडिसमाहारमासेज्ज णाणावरणादीनं पयडीणं सगसग ठिदिबन्धकारणज्झवसाणद्वाणाणि सव्वाणि एगत्तकाऊण पमाणं परूविदं । ण हिदि पडि एसा परूवणा होदि । उबरिमसुत्तेहि द्विदि पडि अज्झवसाणपमाणस
यहाँ सब मूलप्रकृतियोंके समान कषायोदय स्थानोंका ग्रहण नहीं; क्योंकि कषायके उदयस्थानोंके बिना मूलप्रकृतियोंका बन्ध नहीं होनेसे सब प्रकृतियोंके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानोंकी समानताका प्रसंग आता है । अर्थात् यदि सब मूलप्रकृतियोंके कषायोदय स्थान समान होंगे तो सबके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान भी समान होंगे क्योंकि कषायके उदय स्थानोंके बिना मूलप्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता । अतः सब मूलप्रकृतियोंके अपने-अपने उदयसे उत्पन्न हुए परिणाम अपने-अपने स्थितिबन्धके कारण होते हैं। इससे उन्हें स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान कहते हैं, उनका यहाँ ग्रहण है । प्रकृतियोंके स्थिति भेदरूप समुदायको लेकर ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंके अपने-अपने स्थितिबन्धके कारणभूत जो अध्यवसाय स्थान हैं उन सबको एकत्र करके प्रमाण कहा है। यह कथन स्थितिकी अपेक्षा नहीं है ।
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