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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६५१ तैजसद्विकमुं वर्णचतुष्कभुं स्थिरद्विकम् शुभद्विकमुं अगुरुलघुत्रं निर्माण नाममुमितु ई ध्रुवोदयंगळेल्लं कूडि स्वोदयबंधंग ळिप्पत्तेळ प्रकृतिगळप्पुविवक्के तलानुं बंघमक्कुमप्पोडे स्वोदयबोळेयक्कुमुदयं बंधमिल्लदेयुमक्कुं । संदृष्टि - मि १ । णा ५ । अं५ । ६४ । तैज २ । वनं ४ | थि २ । शु २ । अ १ । नि १ । कूडि २७ ॥ शेषदर्शनावरणपंचकमुं वेदनीय द्विकमुं मोहनीयपंचविशतिप्रकृतिगळं मनुष्यायुष्यमुं तियंगायुष्यमुं मनुष्यगतिनाममुं तिष्यंग्गतिनाममु मेकेंद्रियादि ५ जातिपंचकमुं औदारिकशरीरमुं औदारिकांगोपांगमुं संहननषट्कमुं संस्थानषट्कमुं मनुष्यानुपूर्व्यमुं तिम्यंगानुपूर्व्यमुं उपघातपरघातात पोद्योत चतुष्क मुमुच्छ्वासमुं विहायोगतिद्विकमुं सद्विकर्मु बादरद्विक पर्याप्तद्विकमु प्रत्येकसाधारणशरीरद्विकमुं सुभगद्विकमुं सुस्वर द्विक आवेयद्विकर्म यशस्कीर्त्तिद्विकमुं गोश्रद्विकमुर्म बी द्वयशीतिप्रकृतिगळु भयोदय बंधप्रकृतिगळवु ॥ संदृष्टि : द५ । वे २ । मो २५ । म १ । ति १ । म १ । ति १ । जा ५ । औ १ । औ अं १ । सं ६ । सं६ । म १ । ति १ । उ ४ । उ १ । वि २ । २ । बा २ ।१ २ । २ । सु २ । सु २ । आ २ । गो २ । कूडि ८२ ॥ --- २० अनंतरं निरंतरबंध प्रकृतिगळय्वत्तनात्कु ५४ । सांतरबंधप्रकृतिगळु मूवत्तनात्कु ३४ । सांतरनिरंतरोभवबंधप्रकृतिगळु मूवत्तरडे दु गाथाचतुष्टयविदं पेपर : तैजसद्विकं वर्णचतुष्कं स्थिरद्विकशुभद्विका गुरुलघुनिर्माणानीति ध्रुवोदयाश्च मिलित्वा सप्तविंशतिः १५ स्वोदयबंधा भवंति | आसां बंधः स्वोदयेनैव, उदयः अबंधेऽपि स्यात् । शेषाः पंचदर्शनावरणद्विवेदनीय पंचविश तिमोहनीयतिर्यग्मनुष्यायुस्तिर्यग्मनुष्यगतिपंच जात्यादारिकत दंगोपांगषट्संहननषट्संस्थानतियंग्मनुष्यानुपूर्व्योपधातपरघातातपोद्योतोच्छ्वास विहायोगति द्विकत्रसद्विकबादरद्विकपर्याप्तद्विकप्रत्येक साधारण सुभगद्विक सुस्वरद्विकादेय द्विकयशस्कीर्तिद्विकगोत्रद्विकानि द्वयशीतिप्रकृतयः उभयोदयबंधा भवंति ॥ ४०३ ॥ तृतीय प्रश्नत्रय प्रकृतीर्गाथा - २० ܕ चतुष्टयेनाह उदय में होता है, इनका उदय रहते इनका बन्ध नहीं होता । तथा मिध्यात्व, सूक्ष्म साम्पराय में जिनकी बन्ध व्युच्छित्ति होती है वे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तराय ये घातिकर्मोंकी चौदह प्रकृतियाँ | तेजस, कार्माण, वर्णादि चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु, निर्माण ये बारह ध्रुवोदयी हैं इनका उदय निरन्तर पाया जाता है। इनमें पूर्वोक पन्द्रह मिलकर सत्ताईस प्रकृतियाँ स्वोदयबन्धी हैं अर्थात् इनका बन्ध अपने ही उदयमें होता २५ है किन्तु उदय इनके अबन्ध में भी होता है। शेष पाँच निद्रा, दो वेदनीय, पच्चीस मोहनीय, तिर्यचायु, मनुष्यायु, तियंचगति, मनुष्यगति, जाति पाँच, औदारिक शरीर व अंगोपांग, छह संहनन, छह संस्थान, तिर्यचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास, विहायोगति दो, त्रस दो, बादर दो, पर्याप्त दो, प्रत्येक, साधारण, सुभग दो, सुस्वर दो, आदेय दो, यशस्कीर्ति दो, गोत्र दो, ये बयासी प्रकृतियाँ उभयबन्धी हैं, इनके उदय में भी इनका बन्ध होता है और इनका उदय न होते हुए भी इनका बन्ध होता है ।।४०२-४०३॥ तीसरे तीन प्रश्नोंकी प्रकृतियाँ चार गाथाओंसे कहते हैं ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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