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________________ १०८३ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका उच्छ्वासनिश्वासयुतातपनाम मेणुयोतोदययुत जोवंगळोळे सप्तविंशतिस्थानमुदययिसुगुमल्लि उ २७ । बं २३ ।। २५ । २६ । २९ । ३० ॥ स ९२। ९०। ८८। ८४ ॥ इल्लि द्वचशीति सत्त्वस्थानं संभविसदेके बोडे एकेंद्रियजीवंगळुच्छ्वासनिश्वासपर्याप्तिकालदिदं मुन्नमें शरीरमिश्रकालदोळे संभविसुगु मल्लदीयवसोळु मनुष्यद्विकमुं तेजोवायुकायिकंगळल्लदुळि वेकेंद्रियप्राणिगळ कटुवरप्पुरिदं तत्सत्त्वस्थानं संभविसदप्पुरिदं ।। मनुष्यगतिजरोळ आहारकऋद्धियुतप्रमत्तसंयतरुगळाहारक शरीरपर्याप्तिकालदोळु सप्तविंशतिस्थानोवयमक्कुं । उ २७ । बं २८ । दे । २९ । दे तीत्थं । स ९३ । ९२॥ तीर्थयुतकवाटसमुद्घातकेवलियो उ २७ । बं । ० । स ८० । ७८ ॥ देवगतिजरोळु भवनत्रयकल्पजस्वीयरुगळ्गे शरीरपर्याप्तिकालवो मिथ्या। उ २७ । बं २५ । २६ । २९ । ति म ३० । ति । उ । स ९२। ९०। तत्रत्यसासावनमिश्रासंयतरुगळोळी सप्तविंशतिस्थानोदयमिल्ल । सौधम्मकल्पद्वयजरुगळ्गे १० शरीरपर्याप्तिकालवोळ मिथ्यादृष्टिगळ्गे उ २७ व २५ । २६ । २९ । ति । म । ३० । ति । उ । स ९२।९०। तत्रत्यसासादन मिश्ररुगळ्गे सप्तविंशतिस्थानोदयं संभविसदु । तत्रत्यासंयतरुगळ्गे शरीरवंशामेघयोः उ २७, बं ३० म ती, स ९१, अंजनादित्रये मिथ्यादृष्टौ उ २७, बं २९ ति म, ३० ति उ, स ९२, ९०, माघव्यां उ २७, ब २९ ति, ३० ति उ, स ९२, ९०, न सासादनादौ । एकेन्द्रियेषूच्छवासनिश्वासयुतातपोद्योतान्यतरयुतं । उ २७, बं. २३, २५, २६, २९, ३०, स ९२, ९०, ८८, ८४, द्वयशीतिकं तु विकल्प्यं १५ तेजोवायुभ्यः शेषैकेन्द्रियेषूच्छ्वासपर्यासिकाले मनुष्यद्विकस्य बन्धात् । आहारकों उ २७, बं २८ दे, २९ दे तो. स ९३, ९२, सतीर्थकवाटे उ २७, बं, स ८०, ७८, भवनत्रयकल्पजस्त्रीषु मिथ्यादृष्टो उ २७, बं २५, २६, २९ ति,म, ३० ति उ, स ९२, ९०, न सासादनादौ । सौधर्मद्वये मिथ्यादृष्टी त २७ बं २५, २६, २९, ति तीर्थसहित तीसका और सत्त्व इक्यानबेका है। अंजनादि तीनमें मिथ्यादृष्टिमें बन्ध तिर्यच या मनुष्य सहित उनतीसका अथवा तिथंच उद्योत सहित तीसका है। सत्त्व बानबे, नब्बेका २० है। माधवीमें बन्ध तिर्यंच सहित उनतीसका या तियंच उद्योत सहित तीसका है। सत्त्व बानबे, नब्बेका है । सासादन आदिमें सत्ताईसका उदय नहीं है। ___एकेन्द्रियों में उच्छवास निःश्वास और आतप उद्योतमें-से एक सहित सत्ताईसका उदय होता है। वहां बन्ध तेईस, पञ्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीसका है सत्त्व बानबे, नब्बे, अठासी, चौरासीका है। बयासीका सत्त्व हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता; क्योंकि तेजकाय, २५ वायुकायको छोड़ शेष एकेन्द्रियोंमें उच्छवास पर्याप्तिकालमें मनुष्य द्विकका बन्ध होता है। आहारक शरीरवाले के सत्ताईसका उदय होता है। वहाँ बन्ध देवगतिके साथ अठाईसका या देवतीर्थ सहित उनतीसका है। सत्त्व तिरानबे, बानबेका है। तीर्थकर सहित कपाट समुद्घातमें सत्ताईसका उदय होता है । वहाँ बन्ध नहीं है । सत्त्व अस्सी, अठहत्तरका है। देवगतिमें भवनत्रिक और कल्पवासी स्त्रियोंमें मिथ्यादृष्टिमें बन्ध पच्चीस, छब्बीस ३० तियंच या मनुष्य सहित उनतीस और तिर्यच उद्योत सहित तीसका है। सत्त्व बानबे या नब्बेका है। सासादन आदिमें सत्ताईसका उदय नहीं है। सौधर्म युगलमें मिथ्यादृष्टि में बन्ध पच्चीस-छब्बीस, मनुष्य या तिथंच सहित उनतीस या तिथंच उद्योत सहित तीसका है। सत्त्व बानबे, नब्बेका है। सासादन और मिश्रमें सत्ताईसका उदय नहीं है । असंयतमें बन्ध मनुष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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