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गो० कर्मकाण्डे पक्षत्वमरियल्पडुगुं । हास्यरतिद्वयक्के प्रमत्तसंयतपर्यंतं सप्रतिपक्षत्वमेक बोडरतिशोकंगळ्गे प्रमत्तसंयतपय्यंतं बंधमुंटप्पुरिदं। मेलपूर्वकरणचरमसमयपथ्यंतं निःप्रतिपक्षत्वमरियल्पडुगुं। पुंवेदक्के सासादनपथ्यंतं सप्रतिपक्षत्वमेके दोडे मिथ्यादृष्टियोळु षंडवेदमुं स्त्रीवेदमुं सासादननोळु
स्त्रीवेदमु बंधमुटप्पुरिदं । मेले मिश्रं मोदल्गोंडनिवृत्तिकरण सवेदभागपयंतं निप्रतिपक्षत्वमरि५ यल्पडुगुं। उच्चैर्गोत्रक्क सासादनपयंतं सप्रतिपक्षत्वमेके दोडे सासावनपयंतं नोचैर्गोत्रके
बंधमुटप्पुरिदं। मेले मिश्रं मोदल्गोंडु सूक्ष्मसांपरायपय॑तं निःप्रतिपक्षत्वमरियल्पडुगुं। इंतु नवप्रश्न प्रथमचूळिकाधिकारं व्याख्यातमादुदु ॥
जत्थ वरणेमिचंदो महणेण विणा सुणिम्मलो जादो।
सो अभयणंदि णिम्मलसुओवही हरउ पावमलं ॥४०८॥ यत्र वरनेमिचंद्रो मथनेन विना सुनिर्मलो जातः। सोऽभयनंदिनिर्मलश्रुतोवधिहरतु पापमलं॥
आवुदोंदु अभय विनिर्मलश्र तोदधियोळ वरनेमिचंद्रं मथनमिल्लदे सुनिर्मलनागि पुट्टि वनंतप्पऽभयनंदिश्रुतोदधि भव्यजनंगळ पापमलमं किडिसुगे।
पयंतमसातबंधात्सप्रतिपक्षं, उपरि सयोगपर्यंतं निःप्रतिपक्षं । हास्यरतिद्वयं प्रमत्तपयंतमरतिशोकबंधात्सप्रतिपक्षं, १५ उपर्यपूर्वकरणचरमसमयपयंतं निष्प्रतिपक्षं। पुंवेदः सासादनपर्यतं सप्रतिपक्षः, मिथ्यादृष्टौ षंढस्त्रीवेदयोः सासादने
स्य च बंधात उपर्यनिवत्तिकरणसवेदभागपयंतं निःप्रतिपक्षः। उच्चर्गोत्रं सासादनपर्यंतं नीचोंबंधात्सप्रतिपक्षं, उपरि सूक्ष्मसांपरायपयंतं निःप्रतिपक्षं ॥४०६-४०७॥ इति नवप्रश्नप्रथमचूलिका व्याख्याता ।
___ वरनेमिचंद्रो मथनेन विनापि सुनिर्मलो जातः सोऽभयनंदिनिर्मलश्रुतोदधिर्भन्यजनानां पापमलं हरतु ॥४०८॥ २० सप्रतिपक्षी हैं। ऊपर अपूर्वकरणके षष्ठभाग पर्यन्त प्रतिपक्ष रहित हैं। सातावेदनीय
प्रमत्तपर्यन्त असातावेदनीयका बन्ध होनेसे सप्रतिपक्षी है। ऊपर सयोगीपर्यन्त अप्रतिपक्षी है। हास्य रति प्रमत्तपर्यन्त अरति शोकका बन्ध होनेसे सप्रतिपक्षी है। ऊपर अपूर्वकरणके अन्तिम समय पर्यन्त अप्रतिपक्षी हैं। पुरुषवेद सासादन पर्यन्त सप्रतिपक्षी है क्योंकि
मिथ्यादृष्टि में नपुंसकवेद स्त्रीवेदका और सासादनमें स्त्रीवेदका बन्ध होता है। ऊपर अनि२५ वृत्तिकरणके सवेदभाग पर्यन्त प्रतिपक्ष रहित है। उच्चगोत्र सासादन पर्यन्त नोचगोत्रका बन्ध होनेसे सप्रतिपक्षी है। ऊपर सूक्ष्म साम्पराय पर्यन्त अप्रतिपक्षी है ॥४०६-४०७।। इस प्रकार नवप्रश्नचूलिका व्याख्यान समाप्त हुआ।
पंच भागहारचूलिका जिस अभयनन्दि आचार्यरूपी निर्मल शास्त्र समुद्र में-से बिना ही मथन किये ३० नेमिचन्द्र आचार्यरूपी निर्मल चन्द्रमा प्रकट हुआ वह शास्त्रसमुद्र सब जीवोंके पापमलको
दूर करे ॥४०८॥
१. विद्यागुरु ।
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