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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका एक्के एक्कं आऊ एक्कभवे बंधमेदि जोग्गपदे । अडवारं वा तत्थवि तिभागसेसेव सब्वत्थ ॥६४२॥ एकस्मिन्नेकमायुरेकभवे बंधमेति योग्यपदे । अष्टवारान्वा तत्रापि त्रिभागावशेष एव सर्वत्र॥ एकस्मिन् एकजीवनोळ एकमायुः ओंदायुष्यं एकभवे ओदु भवदोळु योग्यपदे बंधयोग्य- ५ कालंगळोळ अष्टवारान्वा एंटु वारंगळनुमेणु बंधमेति बंधमनेटदुगुं। तत्रापि आ बंधयोग्यस्थान कंगळेटरोळ सर्वत्र एल्ले डेयोळं त्रिभागशेषे एव त्रिभागशेषमागुत्तं विरले बंधमनेय्दुगुं॥ इगिवारं वज्जित्ता वड्ढी हाणी अवट्ठिदं होदि । ओवट्टणघादो पुण परिणामवसेण जीवाणं ॥६४३॥ एकवारं वर्जयित्वा वृद्धिहान्यवस्थितं भवति । अपवर्तनघातं पुनः परिणामवशेन १० जीवानां ॥ एकवारं वजयित्वा प्रथमापकर्षणायुबंधमं वजिसि शेषापकर्षणंगळोळ वृद्धिहान्यवस्थितं भवति बध्यमानायुष्य वृद्धिहान्यवस्थितमक्कु-। मते दोडे ओवजीवं प्रथमापकर्षणदोळे. सागरोपमायुः स्थितियं कट्टिदातं द्वितीयवारदोळा स्थितियं नोडलधिकम मेणु हीनमं मेणवस्थितमं कटुगुमप्पुरिदमल्लि द्वितीयवारदोळ पूर्वमं नोडलधिकम कट्टिदनादोडा द्वितीयदोळु कट्टिदधिः १५ कस्थितिये प्रधानमक्कुं। पूर्वहीनस्थितियप्रधानमक्कुं। द्वितीयादिस्थितियं नोडलु प्रथमवारं कट्टिद स्थितियधिकमादोडे द्वितीयादिवारंगळ होनस्थितियप्रधानमक्कुम दरियल्पडुगुं। पुनः मत्तमायुम्बंधकनप्प जीवन परिणामव वशदिवं बंधमाद परभवायुष्यक्कपवर्त्तनधातमक्कुमपवर्तनघातमें ते दोर्ड बध्यमानस्यापवर्तनमपवर्तनघातः । उदीयमानस्यापवर्तनं कवलोघातः एंदितु एकजीव एकमेवायुः एकभवे योग्यकालेष्वष्टवारमेव बध्नाति । तत्र सर्वत्रापि त्रिभागशेष एव ॥६४२॥ २० अपकर्षेषु मध्ये प्रथमवारं वजित्वा द्वितीयादिवारे बध्यमानस्यायुषो वृद्धि निरवस्थितिर्वा भवति । यदि वृद्धिस्तदा द्वितीयादिवारे बद्धाधिकस्थितेरेव प्राधान्यं । अथ हानिस्तदा पूर्वबद्धाधिकस्थितेरेव प्राधान्यं । पुनः आयुर्बन्धं कुर्वतां जीवानां परिणामवशेन बध्यमानस्यायुषोऽपवर्तनमपि भवति तदेवापवर्तनधात इत्युच्यते ____एक जीव एक भवमें योग्यकालमें एक ही आयुको बाँधता है। योग्यकालमें भी आठ बार हीब बांधता है। तथा सर्वत्र तीसरा भाग शेष रहनेपर ही बाँधता है। ये त्रिभाग आठ २५ बार होते हैं इसीसे आयुबन्ध भी आठ बार कहा है ॥६४२।। आठ अपकर्षों में प्रथम बारको छोड़कर द्वितीयादि बारमें प्रथम बारमें बाँधी हुई आयुकी स्थितिमें या तो वृद्धि होती है या हानि होती है या अवस्थिति रहती है। यदि वृद्धि होती है तो द्वितीय आदि बार में बांधी गयी अधिक स्थितिकी ही प्रधानता रहती है । यदि हानि होती है तो पहले बांधी हुई अधिक स्थितिकी ही प्रधानता रहती है। पुनः आयुबन्ध ३० करनेवाले जीवोंके परिणामोंके वश अपवर्तन भी होता है। अपवर्तनका अर्थ है घटना। इससे उसे अपवर्तनघात कहते हैं। उदय प्राप्त आयुके अपवर्तनको ही कदलीघात कहते हैं। क-१२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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