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________________ ६५३ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सं ५। सं ५। दु १ । आ २ था २। सू१ । अ१। सा१। अ१।१। दु१दु १११ अ१। षं १ । स्त्री १।१ । शो १ कूडि मूवत्तनाल्कु ३४ ॥ सुरणरतिरियोरालिय-वेगुब्बियदुगपसत्थगदिवज्जं । परघाददुसमचउरं पंचेंदिय तसदसं सादं ॥४०६॥ सुरनरतिय॑गौदारिकवैक्रियिकद्विक प्रशस्त गतिवन । परघातद्विक समचतुरस्र पंचेंद्रिय ५ असदशसातं ॥ हस्सरदि पुरिसगोददु सप्पडिवक्खम्मि सांतरा होति । णढे पुण पडिवक्खे णिरंतरा होति बत्तीसा ॥४०७।। हास्यरतिपुरुषगोत्रद्विकं सप्रतिपक्षे सांतरा भवंति । नष्टे पुनः प्रतिपक्षे निरंतरा भवंति द्वात्रिंशत् ॥ ___ सुरद्विक, मनुष्यद्विकमु तिय्यंग्द्विक मुमौदारिकद्विक, वैक्रियिकद्विकमु प्रशस्तविहायोगतियुं वज्रऋषभनाराचसंहनन, परघातोच्छ्वासद्विकमुं समचतुरस्र संस्थान, पंचेंद्रियजातियु त्रसबादरपर्याप्त प्रत्येकस्थिर शुभ सुभग सुस्वरादेय यशस्कोति सातवेदनीय हास्यरतिद्विक पुंवेदगोत्रद्विकर्मब द्वात्रिंशत्प्रकृतिगळु सप्रतिपक्षदोळु सांतरंगळप्पुवु । मत्ते नष्ट प्रतिपक्षंगळागुत्तं विरलु निरंतरोदयबंधंगळप्पुषु । संदृष्टि-सु २ । म २। ति २। औ२।२।प्र १ व १ प २ स १ १५ पं.१ त्र १० सात १ हा १। र १। पुंवेद १ गो २ कूडि ३२ ॥ यिल्लि सुरद्विकक्के मिथ्यादृष्टि दशकमसातं स्त्रीषंढवेदो अरतिः शोकश्चेति चतुस्त्रिशत्सांतरबंधा भवंति ॥४०४-४०५।। सुरद्विकं मनुष्यद्विकं तिर्यद्विक औदारिकद्विकं वैक्रियिकद्विकं प्रशस्तविहायोगतिर्वज्रवृषभनाराचं परघातोच्छवासी समचतुरस्रसंस्थानं पंचेंद्रियं त्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरशुभसुभगसुस्वरादेययशस्कीर्तयः सातं हास्यरती वेदो गोत्रद्विकं चेति द्वात्रिंशत्प्रकृतयः सप्रतिपक्षे सांतरा भवंति । तस्मिन्नष्टे निरंतरोदयबंधा २० होता है किसी समय अन्य गतिका बन्ध होता है। किसी समय एकेन्द्रिय जातिका बन्ध होता है किसी समय अन्य जातिका बन्ध होता है। इस प्रकार ये प्रकृतियाँ सान्तर बन्धी हैं ॥४०४-४०५।। देवगति, देवानुपूर्वी, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, तियंचगति तिर्यंचानुपूर्वी, औदारिक शरीर व अंगोपांग, वैक्रियिक शरीर व अंगोपांग, प्रशस्त विहायोगति, वनवृषभनाराच संहनन, २५ परघात, उछ्वास, समचतुरस्रसंस्थान, पंचेन्द्रिय, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, सातावेदनीय, हास्य, रति, पुरुषवेद, गोत्र दो ये बत्तीस प्रकृतियाँ प्रतिपक्षीके रहते हुए सान्तरबन्धी हैं। और प्रतिपक्षीके नष्ट होनेपर निरन्तर बन्धी हैं। जैसे अन्य गतिका जहाँ बन्ध पाया जाता है वहाँ तो देवगति सप्रतिपक्षी है। अतः वहाँ किसी समय देवगतिका बन्ध होता है और किसी समय अन्य गतिका बन्ध होता है। ३० जहाँ अन्य गतिका बन्ध नहीं पाया जाता केवल देवगतिका बन्ध है वहाँ देवगति अप्रतिपक्षा होनेसे प्रतिसमय देवगतिका ही बन्ध होता है । अतः देवगतिको उभयबन्धी कहा है। इसी प्रकार अन्य प्रकृतियों में जानना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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